Isi hawa Mein Apni Bhi Do Chaar Sans Hai

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Isi hawa Mein Apni Bhi Do Chaar Sans Hai

जनजीवन के दैनिक प्रसंगों में शामिल होने का दावा करनेवाले, लेकिन हक़ीक़त में अभिजात काव्याभिरुचि की प्रतिष्ठा के लिए फ़िक्रमन्द, तमाम रूप-विकल कवियों में लगभग विजातीय की तरह दिखनेवाले अष्टभुजा शुक्ल की कविता का यथार्थ दरअसल भारतीय समाज के उस छोर का यथार्थ है, जिस पर ‘बाज़ार’ की नज़र तो है, लेकिन जो बाज़ार की वस्तु बन चुकने के अभिशाप से अभी बचा हुआ है। कह सकते हैं कि अष्टभुजा शुक्ल की कविता इसी ‘बचे हुए’ के ‘बचे होने’ के सत्यों और सत्त्वों के साथ साग्रह खड़े होने के साहस की कविता है। अष्टभुजा का यह साहस किसी विचार, विचारधारा या विमर्श के अकादमिक शोर में शामिल कवियों वाला साहस नहीं है। यह उस कवि का साहस है जो सचमुच ही खेती करते हुए—‘हाथा मारना’ जैसी कविता, यानी उत्पादन-प्रक्रिया में हिस्सेदारी करते हुए निजी तौर पर हासिल सजीव जीवन-बोध की कविताएँ लिखता है। न केवल लिखता है, बल्कि कविता और खेत के बीच लगातार बढ़ती हुई दूरी को मिटाकर अपने हस्तक्षेप से अन्योन्याश्रित बना डालता है। कविता में चौतरफ़ा व्याप्त मध्यवर्गीयताओं से बेपरवाह रहते हुए वह यह दावा करना भी नहीं भूलता कि जो खेत में लिख सकता है, वही काग़ज़ पर भी लिख सकता है।

मैं काग़ज़ पर उतना अच्छा नहीं लिख पाता

इसलिए खेत में लिख रहा था

यानी हाथा मार रहा था।

खेत में अच्छा और काग़ज़ पर ख़राब लिखने की आत्म-स्वीकृति उसी कवि के यहाँ सम्भव है जो कविता करने के मुक़ाबले किसानी करने को बड़ा मूल्य मानता हो यानी जो कविता का किसान बनने के लिए तैयार हो। यह किसी अकादमी, संस्थान या सभा-समारोह के मंच से किसी कवि द्वारा किया गया दावा नहीं, बल्कि खेत में खट रहे एक कवि का हलफ़िया बयान है। यही वजह है कि उसकी कविताओं में जहाँ-तहाँ बिखरी हुई तमाम घोषणाएँ, मसलन यह कि—मैं ऐसी कविताएँ लिखता हूँ/जो लौटकर कभी कवि के पास नहीं आतीं’, कहीं से दम्भप्रेरित या अविश्वसनीय नहीं लगतीं। कवि और कविता के सम्बन्धों की छानबीन करने की ज़रूरत की तरफ़ इशारा करती हुई इन कविताओं में छिपी हुई चुनौती पर आज की आलोचना को ग़ौर करना चाहिए। यों ही नहीं है कि भारतीय मानस के अनुभवों की विश्वसनीय अभिव्यक्ति का संकट झेल रही आज की कविता से निराश पाठकों के एक बड़े हिस्से को, चमकीली चिन्ताओं से सजी-धजी कविताओं की तुलना में अष्टभुजा की कविता का धूसर रंग कहीं अधिक आकर्षक नज़र आता है।

अष्टभुजा की कविता में मध्यवर्गीय निराशा और आत्मसंशय का लेश भी नहीं है। वहाँ तो साधनहीनताओं के बीच राह निकाल लेने का हठ और किसी चिनगारी की रोशनी के भरोसे घुप अँधेरी यात्राओं में निकल पड़ने का अदम्य साहस है। अष्टभुजा की कविता उस मनुष्य की खोज करती हुई कविता है जिसके ‘हिस्से का आकाश बहुत छोटा है’, लेकिन जो अपने छोटे से आकाश में ही ‘अपना तारामंडल’ बनाना चाहता है। उसकी कविता में ‘ग्यारहवीं की छात्रा’ इतना तेज़ साइकिल चलाती है कि समय उससे पीछे छूट जाता है और 12वें किलोमीटर पर पहुँचकर, 11वें किलोमीटर पर पीछे छूट गए समय का उसे इन्तज़ार करना पड़ता है।

अष्टभुजा की कविताओं में बाज़ार के विरोध का उद्घोष नहीं है। उसके समर्थन का तो कोई प्रश्न ही नहीं। मगर वहाँ विमर्शों की तमाम वैश्विक त्रासदियाँ अपने एकदम प्रकृत स्वर में अपनी गाथा पढ़ती हुई सुनाई देती हैं। ‘पुरोहित की गाय’ उनकी कविता में आकर सारी कथित मर्यादाओं के विरुद्ध विद्रोह पर उतारू ‘दलित-काम’ स्त्री का प्रतिरूप बन जाती है। ‘मशरूम वल्द कुकुरमुत्ता’ और ‘हलन्त’ जैसी कविताओं के बहाने जिस तरह भारतीय सांस्कृतिक जीवन-प्रतीकों में दलित जीवन की विडम्बनाओं को पकड़ने की कोशिश की गई है, वह काग़ज़ पर कविता लिखनेवाले कवियों के लिए क़तई कठिन चुनौती है।

‘चैत के बादल’, ‘पद-कुपद’ और ‘दुःस्वप्न भी आते हैं’ के बाद, अष्टभुजा का यह संग्रह हिन्दी कविता में पहले से ही प्रतिष्ठित उनके काव्य-संवेदन को प्रौढ़ता की अगली मंज़िल प्रदान करता है।

हर वह पाठक, जो कविता में एक निर्बन्ध भाषा, बेलौस साफ़गोई और आत्मविश्वास की वापसी का इच्छुक है, अष्टभुजा का यह संग्रह बार-बार पढ़ना चाहेगा।

—कपिलदेव

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2010
Edition Year 2010, Ed. 1st
Pages 164p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 1.5
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Ashtbhuja Shukla

Author: Ashtbhuja Shukla

अष्टभुजा शुक्ल

जन्म : दीक्षापार गाँव, जनपद बस्ती (उत्तर प्रदेश)।

कविता-संग्रह : ‘पद-कुपद’, ‘चैत के बादल’, ‘दुःस्वप्न भी आते हैं’, ‘इसी हवा में अपनी भी दो चार साँस है’ और ‘रस की लाठी’।

ललित निबन्ध-संग्रह : ‘मिठउवा’।

सम्मान : ‘परिवेश सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और ‘श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान’।

सम्प्रति : प्राध्यापक, तुलसीदास उदयराज संस्कृत महाविद्यालय, चित्राखोर बनकटी, बस्ती (उ.प्र.)।

 

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