Dhaar

उपेक्षा, भूख, ग़रीबी में लिपटी आरण्यमुखी आदिवासी अस्मिता में ख़लल तब नहीं पड़ती जब भूख उन्हें परेशान करती है, अभाव उन्हें तोड़ने लगता है, मौसम की मार से जीना हराम हो जाता है, इन सबके तो वे अभ्यस्त रहे हैं। ख़लल तब पड़ती है, जब विकास के नाम पर कोई उनके गहरे शान्त जीवन को गन्दला करने चला आता है।
भरसक वे कंगाल हों लेकिन उनके नीचे खनिज और वन-सम्पदा के कुबेर के ख़ज़ाने हैं। उनके जीवन, यौवन और ख़ज़ाने पर लार टपकाते दिकुओं से लेकर मल्टीनेशनल्स और उनके दलालों तक की नज़र है और वे उद्वास्त होने और लुटने को अभिशप्त हैं। पहले बिहार और अब झारखंड का ऐसा ही एक क्षेत्र है संताल परगना। संजीव ने इस उपन्यास के माध्यम से इस आदिवासी अंचल के खनन-दोहन और उसके प्रतिरोध में उठती आदिवासी चेतना, लूट की सरकारी और निजी योजनाओं के विरुद्ध ‘जनखदान’ जैसे वैकल्पिक मॉडलों की तलाश तब शुरू की थी जब इस विषवृक्ष का अंकुर मात्र फूटा था, जो आज पूरे देश के आदिवासी-अस्तित्व के लिए विकराल दानव बन चुका है। विकास के नाम पर विनाश, उद्भव के नाम पर पराभव और शौर्य की परम्परा को दलाल-परम्परा में रेड्यूस करने के विरुद्ध एक सक्षम प्रतिवाद है ‘धार’। ‘धार’ आदमी की भोथरी होती हुई ‘धार’ का सन्धान है।
‘धार’ की अतिरिक्त विशिष्टता है उपन्यास की नायिका मैना जो प्रेमचन्द के ‘गोदान’ की धनिया और एमिल जोला के ‘जर्मिनल’ की माहेदी की दुर्धर्ष नायिकाओं की परम्परा की अगली और अधुनातन कड़ी है। बाहरी और अन्दरूनी पचासों झंझावातों से जूझती, दलाल बनते जा रहे पिता, पति, पुत्री, परिजन, पुरजन और पतनशील परम्पराओं से जूझती ‘मैना’ हिन्दी का अविस्मरणीय चरित्र है।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 1990 |
Edition Year | 2018, Ed. 4th |
Pages | 200p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |
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