महान हिन्दी आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कक्षा में बैठकर जिस एक छात्र ने अपने आचार्य की सीमाओं को आक्रामक शैली में इंगित किया उसका नाम नन्द दुलारे वाजपेयी था। उसी छात्र ने यह भी घोषित किया कि उनकी लिखी हुई पुस्तकें और उनके तैयार किए हुए विद्यार्थी, जिनमें मैं भी एक होने का गर्व करता हूँ, किन्तु मैं उनकी प्रतिध्वनि नहीं हूँ, क्योंकि प्रतिध्वनि कभी मूल ध्वनि की बराबरी नहीं कर सकती। अस्तु, मेरी अपनी ध्वनि है।
यही आलोचक नन्द दुलारे वाजपेयी अपने आचार्य शुक्ल से छायावादी काव्य को लेकर असहमत होकर इस परिभाषा और व्याख्या पर उतर आया कि कविता जिस स्तर पर पहुँचकर अलंकार-विहीन हो जाती है। वहाँ वह वेगवती नदी की भाँति हाहाकार करती हुई हृदय को स्तम्भित कर देती है। उस समय उसके प्रवाह में अलंकार ध्वनि वक्रोक्ति आदि न जाने कहाँ बह जाते हैं और सारे सम्प्रदाय न जाने कैसे मटियामेट हो जाते हैं।'
शुक्ल जी को युग प्रवर्तक आलोचक मानते हुए भी आचार्य वाजपेयी ने उनकी प्रबन्ध काव्य सम्बन्धी अवधारणा के विपरीत यह स्थापित किया कि प्रगीतों में ही कवि का व्यक्तित्व पूरी तरह प्रतिबिम्बित होता है।'
शुक्लोत्तर आलोचना के इस सर्वप्रथम आलोचक आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने हिन्दी में स्वच्छन्दतावादी आलोचना का प्रवर्तन किया। यह पुस्तक इसी का एक जीवन्त दस्तावेज है।
विजय बहादुर सिंह
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2022 |
Edition Year | 2022, Ed. 1st |
Pages | 207p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |