चार यारों की आठ कहानियों की यह प्रस्तुति हमारे चार बड़े लेखकों की समवयस्क-समकालीन रचना-यात्रा को एक भेंट तो है ही, उससे ज़्यादा यह हिन्दी कहानी के उस दौर का पुनर्पाठ है जब लेखक-मानस किन्हीं सिद्ध, स्वीकृत और स्थापित रूढ़ियों का अनुसरण नहीं कर रहा था, बल्कि एक युवा होते विशाल स्वतंत्र देश की तमाम असहायताओं-अपूर्णताओं के बीच खड़ा अपनी रचनात्मक ‘क्वेस्ट' में अपने आन्तरिक और बाह्य विस्तार को भाषा में पकड़ने का जी-तोड़ प्रयत्न कर रहा था। सम्पादक-आलोचक-पाठक-पोषित फार्मूलों
की सुविधा का ईजाद शायद इस दौर के काफ़ी बाद की घटना है।
ये कहानियाँ और इन कहानियों के रचनाकार भाषा की सीमाओं और अनुभव की असीमता, रूढ़ियों की आसानियत और अभिव्यक्ति के दुर्वह संकल्प के बीच तने तारों पर सधे खड़े ‘आइकंस’ हैं, भविष्य ने जिनसे उतना नहीं सीखा, जितना सीखना चाहिए था। अन्तर्बाह्य अन्वेषण की जिस मूल वृत्ति के चलते ये कहानियाँ आविष्कार की तरह घटित होती थीं, वही सबसे मूल्यवान चीज़ आगे की रचनात्मकता में गहनतर होती नहीं दिखती।
नई पीढ़ियों के लिए लगभग दस्तावेज़ी यह प्रस्तुति लेखकीय मित्रताओं के लिहाज़ से भी उन्हें एक ज़्यादा उजले परिसर में आने की दावत है जहाँ स्पर्द्धाओं के ‘टैक्स’ खुली साँस लेने के लिए पर्याप्त अन्तराल देते हुए स्थित होते हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2014 |
Edition Year | 2014, Ed. 1st |
Pages | 103p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |