Nishkasan

कथाकार दूधनाथ सिंह का यह उपन्यास दलित तबक़े की एक लड़की के संघर्ष की कहानी है, जो अन्तत: अपनी लड़ाई हार जाती है, लेकिन हमारे सामने अनेक सवाल छोड़ जाती है।
विश्वविद्यालय के महिला छात्रावास में सुनियोजित शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठाकर सब्ज़ी का ठेला लगानेवाले खटिक पिता की वह बेटी सबके निशाने पर आ जाती है और विश्वविद्यालय से लेकर देश में दूर-दूर तक फैले सवर्ण मायाजाल में भटकते हुए अन्तत: नीम की एक मोटी साख पर लटकी मिलती है।
दूधनाथ सिंह इस कहानी को उस बीसवीं सदी के आख़िरी दशक की पृष्ठभूमि में रखते हैं, जिस सदी ने देश की आज़ादी ही नहीं, पूरी दुनिया में विकास के बड़े-बड़े सच भी होते देखे और झूठ भी। वे कहते हैं कि, ‘‘जब यह सब हो रहा है, तब पिछली शताब्दी का अवसान है। शताब्दी जो दमन और त्रास और विचारों की बड़बोली और विफल स्वप्नों की इन्द्रजालिक चीत्कार और एक शालीन ले-लपक के नारकीय उत्सवांत में लिथड़ी हुई है; जिसमें दुस्साहसों का अद्भुत विलास है; जिसमें आदमी के दिमाग़ का द्रुतगामी चमत्कार है; जिसमें अँधेरे के आदिकालीन पर्दों के उठने से चकमक प्रकाश का चौंधियाता हुआ भय सर्वव्यापी बनने के प्रयत्न में चुपके-चुपके दहाड़ रहा है, जिसमें इनसानियत की उठती हुई लौ को बार-बार फूँक मारकर बुझाने की कोशिशें हैं...’’
यह उपन्यास इसी साकार वितृष्णा का कथा-बद्ध रूप है; जिसमें हम आधुनिक सामाजिक चेतना की अन्दर से चिरी हुई किरचों को अपनी आँखों में करकता महसूस करेंगे।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back |
Publication Year | 2002 |
Edition Year | 2021, Ed. 3rd |
Pages | 143p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |
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