टी.वी. आज हमारे जीवन में जितनी गहराई तक उतर चुका है, उससे दुगुनी गहराई उसने शायद पतन की दिशा में हासिल कर ली है। वैचारिक शून्यता, दिशाहीनता, समाज की मूलभूत चिन्ताओं से निरपेक्ष रहने की आदत और सबसे ऊपर स्वयं को ईश्वर का स्थानापन्न मानने का ढीठ आत्मविश्वास। सस्ती अपराध कथाएँ, हत्याएँ, बलात्कार, भूत-प्रेत, अमीरों की लिजलिजी भावुक कहानियाँ, क्रिकेट और चटखारेदार राजनीति। लगभग यही सब है जो टी.वी. हमें चौबीसों घंटे दे रहा है। और यह सब जिस कारख़ाने में बनता है, या कहें कि जहाँ इसे परोसने लायक़ बनाया जाता है, वहाँ क्या होता है, परदे के परे के उस रहस्यलोक में कौन, कैसे और क्यों इन सिरकटे सपनों की कठपुतलियाँ नचा रहा है—इस किताब में शामिल कहानियाँ यही बताती हैं।
जनवरी 2007 में प्रकाशित ‘हंस’ के विशेषांक ‘ख़बर चैनलों में पहली बार’ के लिए विभिन्न अग्रणी चैनलों में काम कर रहे पत्रकारों ने अपनी आपबीती को आधार बनाकर ये कहानियाँ लिखी थीं। बेशक, सभी कहानियाँ कलात्मक शर्तों पर खरी नहीं उतरतीं लेकिन इनके माध्यम से छोटे परदे के भीतरी सच की जो छवियाँ सामने आई हैं, वे हौलनाक हैं। इनसे हमें पता चलता है कि किस तरह देश की श्रेष्ठ पत्रकार प्रतिभाएँ सिर्फ़ अपनी जगह सुरक्षित रखने के लिए एक-दूसरे को छुरा भोंकने में जुटी हैं, कैसे अकल्पनीय तनख़्वाहों का जाल उन्हें अपनी माया में बुन चुका है, और कैसे रचनात्मकता के नाम पर उनके पास सिर्फ़ ये छटपटाहट ही बची है जो इन कहानियों में प्रकट हुई है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2007 |
Edition Year | 2023, Ed. 2nd |
Pages | 292p |
Translator | Not Selected |
Editor | Ravindra Tripathi |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1.5 |