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Uttaryogi Shri Arvind-Hard Cover

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अरविन्द बंगाल की धरती की उपज थे, पर विचारधारा में वे तिलक, दयानन्द आदि के अधिक निकट प्रतीत होते हैं। बंगाल के विषय में स्वभावतः उनके मन में अनुराग था, पर वे जिस प्रकार का ‘मिशन’ लेकर आए थे, उसकी संसिद्धि शायद बंगाल में रहकर नहीं हो सकती थी। वे अनेक रूपों में बंगाली व्यक्तित्व के अतिरेकों से, अर्थात् स्वप्निल भावुकता आदि से बिलकुल अछूते थे। श्री अरविन्द का पांडिचेरी-गमन क्षेत्रीयता की संकुचित सीमाओं के ध्वंस का प्रतीक है।

वे देशकाल में बँधी खंडशः विभक्त मानवता के प्रतिनिधि बनने नहीं, बल्कि परस्पर सहयोग से पृथ्वी पर अवतरित होनेवाले दिव्य जीवन के निदेशक थे, इसलिए उनका प्रत्येक कार्य मनुष्य को विभाजित करनेवाली आसुरी शक्तियों के षड्यंत्र को असफल बनाने के उद्देश्य से परिचालित रहा। श्री अरविन्द ने राजनेता के रूप में ‘पूर्ण स्वराज्य’ की माँग की। श्री गांधी के दक्षिण अफ़्रीका से भारत आगमन के काफ़ी पहले ‘असहयोग आन्दोलन’ का सूत्रपात किया। कलकत्ते के नेशनल कॉलेज के प्रिंसिपल के रूप में एक नई शिक्षा-पद्धति की बात कही। ‘वन्देमातरम्’ और ‘कर्मयोगी’ के सम्पादक के रूप में भारतीय आत्मा को स्पष्ट करनेवाली नई पत्रकारिता का सूत्रपात किया। उग्रपन्थी विचारधारा को स्वीकार करते हुए भी विरोधी के प्रति सदाशय रहने का आग्रह किया। सत्य तो यह है कि स्वतंत्रता-पूर्व भारतीय राजनीति के सभी मूलभूत आदर्श, राष्ट्रीयता, स्वदेशी प्रेम, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, जनसंगठन और राष्ट्रीय शिक्षा-प्रणाली का आग्रह जैसे तत्त्व, जो बाद में गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रेरणास्रोत बने, श्री अरविन्द के महान् व्यक्तित्व की देन हैं।

जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही लिखा है—“बंग-भंग के विरुद्ध उत्पन्न आन्दोलन ने अपने सभी सिद्धान्त और उद्देश्य श्री अरविन्द से प्राप्त किए और इसने महात्मा गांधी के नेतृत्व में होनेवाले महान आन्दोलनों के लिए आधार तैयार किया।”

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 2008
Edition Year 2013, Ed. 2nd
Pages 396p
Price ₹450.00
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 2
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Shivprasad Singh

Author: Shivprasad Singh

शिवप्रसाद सिंह

 

19 अगस्त, 1928 को जलालपुर, जमानिया बनारस में पैदा हुए शिवप्रसाद सिंह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1953 में हिन्दी में एम.ए. किया। 1957 में पीएच.डी. करने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक नियुक्त हुए।

शिवप्रसाद सिंह प्रख्यात शिक्षाविद् तो थे ही, साहित्य के भी शिखर पुरुष रहे हैं। ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के स्तम्‍भ शिवप्रसाद जी प्राचीन और समकालीन साहित्य से गहरे संपर्क में रहे हैं। कुछ समालोचक उनकी कथा-रचना ‘दादी माँ’ को पहली ‘नयी कहानी’ मानते हैं।

प्रकाशित कृतियाँ : उपन्यास—‘अलग-अलग वैतरणी’, ‘नीला चाँद’, ‘मंजुशिमा’, ‘शैलूष’; कहानी-संग्रह—‘अंधकूप’ (सम्पूर्ण कहानियाँ, भाग-1), ‘एक यात्रा सतह के नीचे’ (सम्पूर्ण कहानियाँ, भाग-2); आलोचना—‘कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा’, ‘आधुनिक परिवेश और नवलेखन’, ‘आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद’; निबन्ध-संग्रह—‘मानसी गंगा’, ‘किस-किसको नमन करूँ’, ‘क्या कहूँ कुछ कहा न जाए’; जीवनी—‘उत्तरयोगी’ (महर्षि अरविन्द)।

निधन : 28 सितम्बर, 1998

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