मुझे अपनी कविताओं के प्रति मोह बिलकुल नहीं है, ऐसा कहना ग़लत होगा। मैं शायद ज़रूरत से ज़्यादा सतर्क और सजग अपनी कविताओं के बारे में हूँ—इसलिए उनसे डरता रहता हूँ। फिर भी यदि कविता लिखता हूँ तो लगता है, ऐसी बातें तो मैं कह चुका हूँ, दूसरे शब्दों से उन्हीं बातों को सहलाना भी मेरे चुक जाने की ही निशानी है। ऐसा नहीं कि मेरे पास विचार या जीवनानुभवों का टोटा पड़ गया है—अभी भी किसी विचार, किसी घटना, छोटी-बड़ी बात से परेशान हो उठता हूँ, कभी-कभी महीनों तक जूझता रहता हूँ। पर उनसे निकलने के लिए कविता मेरे लिए अब आसान रास्ता नहीं रह गई है।
मैं सोचता हूँ कि लेखन में कोई इसलिए आता है कि उसे अपने दिए हुए संसार में बने रहना नाकाफ़ी लगता है। उसके आस-पास जो लोग हैं, सिर्फ़ उनसे रूबरू होकर उसका काम नहीं चलता। वह ऐसे लोगों से बातचीत करना चाहता है जिन्हें वह जानता भी नहीं है, जो दूसरे नगरों में रहते हैं, जो शायद मर चुके हैं या अभी पैदा भी नहीं हुए हैं। वह अपने आस-पास की सांसारिकताओं में ही मशगूल हो जाता है, या दीगर दिलचस्पियों में खप जाता है तो उसकी मानसिकता में दूर, मनचाहे से, अज्ञात से रिश्ते जोड़ने की सामर्थ्य नहीं बची रहती। जितने मनोरथ मैंने उठा रखे हैं, वे ही अब मुझसे नहीं सधते—क्या किया जाए?
देश में और समाज में तमाम तरह की उत्तेजनाएँ हैं। करोड़ों लोग अपनी ज़िन्दगी के थोड़े-बहुत सार्थक को भी बचा रख पाने के लिए दारुण संघर्ष में लगे हुए हैं। काफ़ी लोग बदलाव के लिए बेचैन हो रहे हैं। यह देश और दुनिया ऐसी बने रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। तमाम लोग लगे हैं, इसे बदलने के लिए। इस बात से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता कि एक कवि चुक गया है या उसका वक़्त आ गया है। हो सकता है कि ठीक अज़ाँ सुनने पर वह भी अपना क़फ़न फाड़कर बाहर निकल ही आए। अपनी छोटी-सी भूमिका निभाने में शायद वह और कोताही न करे। मूक बोलने लगे और पंगु गिरि को लाँघने लगे, ऐसा नामुमकिन नहीं है।
— सुदीप बॅनर्जी
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2010 |
Edition Year | 2010, Ed. 1st |
Pages | 112p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |