"तुम कहते हो, जीवन सुन्दर है...ठीक है, लेकिन उसके सुन्दर लगने से ही क्या होता है। हम तीनों बहनों के लिए अभी तक के जीवन में क्या सुन्दर है? जैसे पौधे को दीमक खा जाती है, उसी तरह हम तीनों जीवन के हाथों में घुटती रही हैं...अरे लो, मैं तो रोने भी लगी—मुझे रोना नहीं चाहिए..."
"मुझे लगता है कि मनुष्य के पास एक आस्था होनी चाहिए, या और कुछ नहीं तो उसे कोई विश्वास और आस्था खोज लेनी चाहिए, वर्ना उसकी जिंदगी सूनी और खोखली हो जाएगी।...आदमी को मालूम तो होना चाहिए कि उसकी जिंदगी का अर्थ क्या है..."
"प्यारी बहनों, हमारे जीवन का अन्त यहीं नहीं हो जाएगा। हम लोग जीवित रहेंगी, यह संगीत कैसा आनन्ददायक, कैसा सुखद है कि मन होता है, थोड़ी देर और चलता रहे, ताकि हम जान लें कि हम किसलिए ज़िन्दा हैं, हमें पता चल जाए कि हम दु:ख क्यों भोग रही हैं।" "काश, जो कुछ हमने जिया है, वह सिर्फ़ ज़िन्दगी का रफ़-ड्राफ़्ट होता और इसे फ़ेयर करने का एक अवसर हमें और मिलता।"
चेख़व की रचनाओं की आत्मीयता, करुणा और ख़ास क़िस्म की निराश उदासी (लगभग आत्मदया जैसी) मुझे बहुत छूती है। मैं उसके प्रभाव से लगभग मोहाच्छन्न था। उसी श्रद्धा से मैंने इन नाटकों को हाथ लगाया था। रूसी भाषा नहीं जनता था, मगर अधिक से अधिक ईमानदारी से उसके नाटकों की मौलिक शक्ति तक पहुँचाना चाहता था। इसलिए तीन अंग्रेज़ी अनुवादों को सामने रखकर एक-एक वाक्य पढ़ता और मूल को पकड़ने कि कोशिश करता। आधार बनाया मॉस्को के अनुवाद को। बाद में सुना, अनुवादों को पाठकों ने पसन्द किया, अनेक रंग-संस्थानों और रेडियो इत्यादि ने इन्हें अपनाया, पाठ्यक्रम में भी उन्हें लिया गया।
—राजेन्द्र यादव
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 1958 |
Edition Year | 2017, Ed. 5th |
Pages | 100p |
Translator | Rajendra Yadav |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |