यह कहानी है विजयनगर की जिसे आजादी-बाद के भारत के रूपक के तौर पर प्रयोग किया गया है। विजयनगर का एक हिस्सा ऐसा है जहाँ धन-धान्य की प्रचुरता है, आमोद-प्रमोद है, विलास है, उन्नति है, सुख है। लोग उसी को विजयनगर समझते हैं और वहाँ की सत्ता उसी को वास्तविक विजयनगर के रूप में प्रस्तुत-प्रचारित करती है।
लेकिन उसी विजयनगर में एक हिस्सा वह भी है जहाँ इस चमकते विजयनगर को अपनी सेवाओं से समृद्ध करनेवाले लोग बहुत बुरी स्थितियों में रहते हैं। वे अपनी जमीनें खो चुके ऐसे लोग हैं जिनके पास गुलामी के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। वहाँ गन्दगी है, बीमारियाँ हैं। और वही वास्तविक विजयनगर है।
साथ ही एक हिस्सा वह भी है जो अभी अपने वजूद के लिए लड़ रहा है। वह ग्रामीण भारत है जहाँ के खेतों पर महाजनों के कर्जों का साया लगातार गहरा होता जा रहा है। राजा चाहता है कि उन खेतों को विदेशी कम्पनियों को बेचकर वहाँ फैक्ट्रियाँ लगवाए और बीच में जो पैसा मिले, उसे अपने विदेशी खातों में जमा कराए।
लेकिन राजा की समाजवादी बेटी ऐसा नहीं होने देती। वह अपने स्वतंत्रता-सेनानी पूर्वजों का बहुत सम्मान करती है और उनके सपनों को साकार करने के लिए कटिबद्ध है। पत्रकार प्रवीण के साथ मिलकर वह न सिर्फ शोषण और पूँजी के दुश्चक्र को तोड़ती है, बल्कि अपने पिता को भी न्याय के मार्ग पर ले आती है।
इस उपन्यास में स्वातंत्र्योत्तर भारत में लागू की गई विकास की अवधारणा को केन्द्र में रखते हुए एक रोचक कहानी के द्वारा विचार किया गया है और उससे मुक्त होकर एक ज्यादा न्यायसंगत राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का विकल्प भी सुझाया गया है। राजशाही की पुरानी पृष्ठभूमि में कहानी अपना एक स्वाद लेकर चलती है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2020 |
Edition Year | 2020, Ed. 1st |
Pages | 104p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 15 X 1.5 |