Pratinidhi Shairy : Akhtar Sheerani

Author: Akhtar Sheerani
Editor: Naresh 'Nadeem'
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Pratinidhi Shairy : Akhtar Sheerani

1905 में रियासत टोंक में जन्मे दाउद ख़ान शीरानी, जो आगे चलकर ‘अख़्तर’ शीरानी के नाम से मशहूर हुए, एक बहुत ही अमीर और प्रभावशाली पिता के पुत्र थे। देश-विभाजन से पहले ही उनके पिता हाफ़िज़ महमूद ख़ान शीरानी लाहौर आकर बस गए और यहाँ भी उनको वही मर्तबा हासिल हुआ जो टोंक में हुआ करता था। ज़ाहिर है कि नौजवान दाउद ख़ान के लिए पैसे-कौड़ी की कोई समस्या नहीं थी; शायरी भी उनके लिए पैसा कमाने का ज़रिया नहीं, शौक़ थी। फिर क्या कारण है कि यही दाउद ख़ान शीरानी बीच में ही तालीम से बेज़ार होकर आवारागर्दी को अपना मशग़ला बना बैठे? क्या कारण है कि ‘अख़्तर’ बनकर उन्होंने ख़ुद को शराब में डुबो लिया? वह कौन सी प्रेरणा थी जिसने उनके और उनके वालिद या घरवालों के बीच कोई सम्बन्ध लगभग छोड़ा ही नहीं? वह कौन सी कसक थी जो उनको हिन्दुस्तान के कोने-कोने में लिए फिरी? इस और ऐसे ही दूसरे अनेक सवालों के जवाब अभी भी पूरी तरह और सन्तोषजनक ढंग से सामने नहीं आए हैं। लेकिन इतना तय है कि ‘अख़्तर’ शीरानी एक बहुत ही निराशाजनक सीमा तक अपने माहौल से कटे हुए थे, और उनके व्यक्तित्व की ठीक यही विशेषता उनके कृतित्व की निर्धारक शक्ति भी बनी।

रहा सवाल ‘अख़्तर’ साहब की शायरी का, तो इसमें शक़ नहीं कि वे बहुत कम उम्र में ही कुल-हिन्द शोहरत के शायरों में गिने जाने लगे थे और पत्र-पत्रिकाओं में उनका कलाम छपने के लिए होड़-सी लगी रहती थी। लेकिन उनकी उदासीनता का, दुनिया से बेज़ारी का आलम यह था कि अपने जीवनकाल में उन्होंने अपना संग्रह प्रकाशित कराने की तरफ़ ध्यान तक नहीं दिया; उनकी रचनाओं का संकलन उनकी मृत्यु के बाद ही हुआ। नागरी लिपि में ‘अख़्तर’ की अभी तक बहुत छोटे-छोटे दो-एक चयन ही सामने आए हैं जो कि पाठक की प्यास को बुझाने का पारा नहीं रखते। मगर यह शिकायत प्रस्तुत संकलन को लेकर नहीं आएगी, इसका हमें विश्वास है।

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Language Hindi
Format Paper Back
Publication Year 2010
Edition Year 2010, Ed. 1st
Pages 211p
Translator Not Selected
Editor Naresh 'Nadeem'
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 21 X 13.5 X 1
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Akhtar Sheerani

Author: Akhtar Sheerani

अख़्तर’ शीरानी

नाम : दाउद ख़ान शीरानी, तख़ल्लुस अख़्तर।

जन्म : 1905 में राजस्थान की भूतपूर्व रियासत टोंक के एक बहुत समृद्ध परिवार में। पिता हाफ़िज़ महमूद ख़ान शीरानी देश-विभाजन से पहले ही लाहौर आकर बस गए थे, मगर टोंक से परिवार का सम्बन्ध बहुत दिनों बाद तक बना रहा।

जीवनवृत्ति : लड़कपन से ही शिक्षा की तरफ़ से मन उचट चुका था, इसलिए ‘अख़्तर’ उच्च शिक्षा से वंचित ही रहे? वैसे अंग्रेज़ी साहित्य पर कुछ हद तक उनकी निगाह ज़रूर रही। आगे चलकर नशे में डूबे रहना और देश के कोने-कोने में भटकना ही उनका मशग़ला रह गया। ‘रोमान  नाम से एक पत्रिका भी जारी की, मगर उनकी अपनी प्रकृति के कारण यह पत्रिका भी बहुत दिनों तक चल नहीं सकी; लेकिन अहमद ‘नदीम’ कासमी और कुछ दूसरे साहित्यकारों से उर्दू जगत को इसी पत्रिका ने परिचित कराया। देश-विभाजन से कुछ पहले अफ़वाह उड़ी कि टोंक से लाहौर आते हुए ‘अख़्तर’ साहब रास्ते में ही कहीं क़त्ल कर दिए गए। जब वे इधर-उधर के रास्तों से होकर लाहौर पहुँचे तो लोगों ने चैन की साँस ली।

निधन : 9 सितम्बर, 1948 को लाहौर के मेयो हस्पताल में, बहुत ही दर्दनाक हालत में।

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