परसाई रचनावली के इस पहले खंड में उनकी लघु कथात्मक रचनाएँ—कहानियाँ, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरण आदि शामिल हैं। कहानीकार के रूप में हरिशंकर परसाई हिन्दी कथा-साहित्य के परम्परागत स्वरूप का वस्तु और शिल्प—दोनों स्तरों पर अतिक्रमण करते हैं।
परसाई की कथा-दृष्टि समकालीन भारतीय समाज और मनुष्य की आचरणगत जिन विसंगतियों और अन्तर्विरोधों तक पहुँचती है, साहित्यिक इतिहास में उसकी एक सकारात्मक भूमिका है, क्योंकि रोगोपचार से पहले रोग-निदान आवश्यक है और अपनी कमजोरियों से उबरने के लिए उनकी बारीक पहचान । परसाई की कलम इसी निदान और पहचान का सशक्त माध्यम है।
परसाई के कथा-साहित्य में रूपायित स्थितियाँ, घटनाएँ और व्यक्ति-चरित्र अपने समाज की व्यापक और एकनिष्ठ पड़ताल का नतीजा हैं । स्वातंत्र्योत्तर भारत के सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के जिन विभिन्न स्तरों से हम यहाँ गुजरते हैं, वह हमारे लिए एक नया अविस्मरणीय अनुभव बन जाता है । इससे हमें अपने आसपास को देखने और समझनेवाली एक नई विचार-दृष्टि तो मिलती ही है, हमारा नैतिक बोध भी जाग्रत् होता है; साथ ही प्रतिवाद और प्रतिरोध तक ले जानेवाली बेचैनी भी पैदा होती है। यह इसलिए कि परसाई के कथा-साहित्य में वैयक्तिक और सामाजिक अनुभव का द्वैत नहीं है। हमारे आसपास रहनेवाले विविध और बहुरंगी मानव-चरित्रों को केन्द्र में रखकर भी ये कहानियाँ वस्तुत: भारतीय समाज के ही प्रातिनिधिक चरित्र का उद्घाटन करती हैं । रचना-शिल्प के नाते इन कहानियों की भाषा का ठेठ देसी मिजाज और तेवर तथा उनमें निहित व्यंग्य हमें गहरे तक प्रभावित करता है। यही कारण है कि ये व्यंग्य कथाएँ हमारी चेतना और स्मृति का अभिन्न हिस्सा बन जाती हैं ।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1985 |
Edition Year | 2023, Ed. 8th |
Pages | 2661p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 19 |