‘लुटियन के टीले का भूगोल’ में प्रभाष जोशी के वे लेख संकलित किए गए हैं जिनके केन्द्र में हैं राजनीतिक दल और उनसे जुड़े राजनीतिज्ञ तथा लोकतंत्र को क़ायम रखनेवाली संस्थाएँ। इसके अलावा ऐसे लेख भी हैं जो समाज और समुदाय के समकालीन प्रसंगों का विवेचन करते हैं और अपने समय की राजनीति से भी जुड़ते हैं।
प्रभाष जोशी अपनी भूमिका में लिखते हैं :
“ ‘लुटियन के टीले का भूगोल’ में ऐसे कागद हैं जो मैंने राजनीति पर कारे किए। नई दिल्ली में जहाँ केन्द्र सरकार बैठकर काम करती है—वह लुटियंस हिल कहलाती है। वहाँ अंग्रेज़ राजधानी लाए, उसके पहले रायसीना गाँव था और जिस पर अंग्रेज़ों ने अपनी सरकार के बैठने के लिए भवन बनवाए, वह रायसीना की पहाड़ी कही जाती थी। लुटियन उस वास्तुशास्त्री का नाम था जिसने रायसीना पहाड़ी पर वायसराय की लॉज (जो अब राष्ट्रपति भवन है) नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक और उसके नीचे एसेम्बली (जो अब संसद भवन है) बनवाए। बाद में यह पूरा परिसर लुटियंस हिल कहलाने लगा। उज्जैन के विक्रम के टीले की तर्ज पर इसे मैंने लुटियन का टीला बना लिया—दोनों का अन्तर्विरोध और विडम्बना दिखाने के लिए। आज की राजनीति और सत्ता का केन्द्र यह लुटियन का टीला है।
लेकिन ये मेरे राजनीति पर लिखे लेख नहीं हैं। वे मैंने ‘जनसत्ता’ के सम्पादकीय पेज पर लिखे और यहाँ संकलित नहीं हैं। ‘कागद कारे’ में राजनीति के मानवीय और निजी पहलुओं को खोलने की कोशिश करता हूँ। इनमें उन दस सालों की सभी राजनीतिक घटनाओं और उनके नायक-नायिकाओं के मानवीय और निजी पक्षों को समझने की कोशिश की गई है। नरसिंह राव, सोनिया गांधी, चन्द्रशेखर, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी, मायावती आदि राजनीतिक व्यक्तित्वों को महज़ राजनीति के नज़रिए से नहीं देखा गया है। इनमें वे पहलू खोजे गए हैं जिनके बिना राजनीति नहीं होती। राजनीति के बिना लोकतंत्र नहीं हो सकता।”
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2008 |
Edition Year | 2008, Ed. 1st |
Pages | 368p |
Price | ₹450.00 |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 3 |