पंजाब एक ऐसा इलाक़ा है जहाँ इतिहास के पन्नों में कहानियाँ ही कहानियाँ छिपी हैं। यहाँ के कण-कण में ऐसा रोमांच है कि पढ़नेवाला अपने आप को उसमें डुबो देता है। ‘हरि मन्दिर’ भी इतिहास के पन्नों से निकाली गई एक ऐसी ही कथा है जो अपने आकर्षण में शुरू से लेकर अन्त तक बाँधे रखती है।
जब दिल्ली में मुग़ल सल्तनत अपने पतन की ओर अग्रसर थी और लाहौर पर पठान गवर्नर अब्दुल समद ख़ाँ का सिक्का चलता था, उसने मस्सा रंघड़ द्वारा 'हरि मन्दिर' साहिब की पवित्रता भंग करा दी थी और अमृतसर में सिंहों (सिक्खों) का रहना निषिद्ध घोषित कर दिया था। उसी मस्सा रंघड़ के अंजाम को दर्शाता, सिंहों की वीरता व गुरुभक्ति का प्रदर्शन कराता, सत्य के लिए प्राणों की आहुति देने को तैयार रहने की भावना को प्रकाशित करता कथानक है इस उपन्यास का।
सिक्खों की वीरता, अपनी भूमि से प्यार और उस पर अपनी जान न्योछावर करने का साहस इस कथा के शब्द-शब्द से झाँकता दिखाई देता है। उपन्यास की भाषा इतनी कसी और सधी हुई है कि एक बार शुरू करने के बाद आप इसे पूरा पढ़े बिना नहीं छोड़ सकते।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2010 |
Edition Year | 2010, Ed. 1st |
Pages | 215p |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1.5 |