उत्तर-आधुनिक समय में ‘सांस्कृतिक राजनीति’ एक संघर्ष-क्षेत्र बन उठा है। ‘सांस्कृतिक राजनीति’ करके ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’, मूलतः फासिस्ट संस्कृति और सत्ता बनाने को प्रयत्नशील है। उसकी मिसालें यत्र-तत्र दैनिक भाव से बनती हैं। वे इसके लिए ‘पॉपुलर कल्चर’ के चिन्हों का सहारा लेते हैं, माध्यमों का सहारा लेते हैं, जनता में पॉपुलर भावपक्ष का निर्माण कर उसे एक निरंकुश अंधराष्ट्रवादी भाव में नियोजित करते रहते हैं। इसके बरक्स, इसके प्रतिरोध में कार्यरत प्रगतिशील सेकुलर और मानवतावादी विचारों और सांस्कृतिक उपादानों, चिन्हों का लगातार क्षय नज़र आता है। कुछ नए प्रतिरोधमूलक प्रयत्न नज़र आते हैं तो वे अपने स्वरूप एवं प्रभाव क्षमता में ‘हाई कल्चर’ (एलीट) बनकर आते हैं, आम जनता का उनसे कोई आवश्यक संवाद-सम्बन्ध नहीं
बनता।
‘पॉपुलर कल्चर’ चूँकि मूलतः और अन्ततः किसी भी तरह के तत्त्ववाद के विपरीत कार्य करती है। इसलिए वह हमेशा केन्द्रवाद, तत्त्ववाद और फासीवाद के ख़िलाफ़ जगह बनाती है और उसके जनतन्त्र के विस्तार की माँग करती है। इस ‘क्रिटीकल’ जगह को तत्त्ववादियों के हड़पने के लिए यों ही नहीं छोड़ा जा सकता। इस जगह में भी संघर्ष करना होगा, क्योंकि यह अब निर्णायक क्षेत्र बन उठा है। ये टिप्पणियाँ इसी चिन्ता से प्रेरित हैं। इसमें मार्क्सवाद और उससे बाहर की बहसें हैं तो समकालीन जीवन में ‘पॉपुलर क्षणों’ के अनुभवों को देखने की कोशिश भी है।
‘पॉपुलर कल्चर’ निष्क्रिय-ग़ुलाम श्रोता-दर्शक नहीं बनाती, वह एक ऐसा जगत बनाती है जो ‘विमर्शात्मक’ होता है। उसे देखने के लिए पॉपुलर संस्कृति की समझ चाहिए। यहाँ उपलब्ध टिप्पणियाँ इस दिशा में पाठकों की मदद कर सकती हैं : इनकी शैली अलग-अलग है क्योंकि हर बार एक चंचल क्षण, एक चंचल जटिल यथार्थ को पकड़ने और विमर्श में लाने की कोशिश है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2005 |
Edition Year | 2005, Ed. 1st |
Pages | 167p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 2 |