अरावली की पर्वत श्रेणियों में विराजित जोगणिया माता मेवाड़ का सुरम्य तीर्थस्थान है। वहाँ पशुबलि सैकड़ों वर्षों से चली आ रही थी। मैंने स्वयं वहाँ बबूलों और खेजड़ों के वृक्षों की डालियों पर बलि दिए पशुओं की मुंडियाँ लटकी देखी हैं। ये पशु अपने-अपने मालिक परिवारों की मनौतियों, बोलमाओं और मान्यताओं के कारण वधित होते थे। आसपास के पेड़ों पर लटके इन पशु मुंडों को देखते हुए मन्दिर तक जाना और दर्शन करना हर किसी के बस की बात नहीं थी।

माँ यशकुँवरजी का यह वाक्य ‘माँ जणै के हणै’ जब पहली बार वहाँ आकाश में गूँजा तब पूरे जोगणिया माता तीर्थ और आसपास के मेवाड़ क्षेत्र की धरती धन्य-धन्य कर उठी। आकाश के नक्षत्रों और मूक पशुओं की शब्दहीन क्रन्दनपूर्ण आवाज़ों ने हज़ारों मीलों तक की धरती को एक सर्वथा नया अहिंसक कम्पन दिया। लोग आपस में एक-दूसरे से पूछते थे, ‘माँ जणै के हणै?’ माँ जन्म देती है कि जीवन का हरण करती है? यह एक अभियानी या आन्दोलनी नारा नहीं था। सचमुच यह एक जीवनदायी जीवन-रक्षक विचार था। बेशक यशकुँवरजी का विरोध हुआ। विरोध भी जमकर हुआ। पर अन्तत: वे लोग भी अपने खाँडे, गँड़ासे, त्रिशूल और तलवारें तथा कुल्हाड़े जैसे कठोर शस्त्र फेंककर नारियलों, माखन, मिश्री तथा भोग नैवेद्यों पर आ गए। माँ यशकुँवरजी ने पशुबलि के लिए सर्वत्र सिहरन के साथ जाने जानेवाले एक महातीर्थ को परम पवित्र अहिंसा का अनुपम तीर्थ बना दिया।

अपने साधुजीवन के एक-दो नहीं, पूरे 70-80 वर्षों का यह पुण्य फल जैन समाज में आचार्य-पद के समकक्ष प्रवर्तिनी पद-प्राप्त यशकुँवर माता ने अपने गुरु समाज और सकल जैन-अजैन समाज पर निछावर कर दिया। इस कृति में ये सारे वर्णन भाई रत्नेश जी ने विस्तार से किए हैं। मालवा और मेवाड़ के उन सभी जनपदीय ग्रामों, नगरों और शहरों के नामों सहित लेखक ने युग प्रवर्तिनी माँ के चौमासाओं पर अपनी सिद्ध लेखनी चलाई है।

यह पुस्तक जानकी बैरागी की कथा नहीं है। यह पुस्तक अहिंसा और जीवदया का अलौकिक गौमुख है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2013
Edition Year 2013, Ed. 1st
Pages 132p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1.5
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Rajendra Ratnesh

Author: Rajendra Ratnesh

डॉ. राजेन्द्र रत्नेश

सुपरिचित कथाकार और वरिष्ठ पत्रकार डॉ. राजेन्द्र रत्नेश साहित्य, संस्कृति, अध्यात्म और राजनीति पर लिखनेवाले क़लमकारों की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं जो परम्परा और प्रगतिशीलता दोनों के बीच ‘संघर्ष’ नहीं देखते हैं। रत्नेश बहुभाषाविद् होने के साथ प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने भाषायी पत्रकारिता में ‘अक्षरयात्रा’ के लेखन की शुरुआत कर आम पाठक को शब्द और उसके अर्थ के रस-रहस्यों का परिचय दे जो यश अर्जित किया है, उसके लिए हिन्दी पत्रकारिता में उनका अनूठा योगदान है।

इन दिनों डॉ. रत्नेश प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर और केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय की एक महत्त्वाकांक्षी शोध परियोजना ‘अंग्विज्जा : अध्ययन एवं अनुवाद’ में व्यस्त हैं। वे ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘माया’ और ‘मनोरमा’ के सम्पादन-दायित्व भी निभा चुके हैं।

प्रकाशित कृतियाँ : ‘वर्धमान’, ‘दया की देवी’, ‘गोशालक’, ‘निर्लेप नारायण’ (उपन्यास)।

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