यह निबन्ध संकलन बदलते हुए वर्तमान भारत को समझने के लिए एक नई बहुआयामी दृष्टि की खोज में पाठकों को भागीदार बनाता है। डॉ. पूरन चन्द्र जोशी के मत में यदि ‘संकट’ की अवधारणा बदलते भारत को समझने की एक मूल कुंजी है तो ‘अवधारणाओं के संकट’ के रूप में इस संकट की व्याख्या राजनीति, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के लिए जितनी प्रासंगिक है उतनी ही साहित्य, कला और संस्कृति के लिए।
लेखक अवधारणाओं के संकट की व्याख्या को पुरानी और नई अवधारणाओं के तीव्र से तीव्रतर होते हुए द्वन्द्वों तक ही सीमित नहीं रखता। लेखक की राय में, संकट को सचमुच में गम्भीर बनाती है पश्चिम से बिना किसी नीर-क्षीर विवेक के अवधारणाओं को उधार लेने की या उनकी बिना जाँच-पड़ताल के आयात करने की देश के नए बुद्धिजीवियों की प्रवृत्ति, जो उतनी ही ख़तरनाक है जितनी मृतप्राय अवधारणाओं से चिपके रहने की अन्धप्रवृत्ति। दोनों प्रवृत्तियाँ भारतीय नवजागरण की मुख्य देन ‘मानसिक स्वराज’ के लक्ष्य को नकारती हैं।
डॉ. जोशी के मत में, हम जिस संक्रान्ति काल से गुज़र रहे हैं, उसमें सांस्कृतिक नवोदय की सम्भावना और नवऔपनिवेशिक मानसिक दासता के ख़तरे एक साथ दिखाई देते हैं जो अवधारणाओं के स्वायत्त-सृजन या अन्धानुकरण के प्रश्नों से जुड़े हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1995 |
Edition Year | 2009, Ed. 2nd |
Pages | 176p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 1.5 |