समकालीन भारतीय कथाकारों में चित्रा मुद्गल का विशिष्ट स्थान है। उनकी समाज सापेक्ष सृजनात्मकता के ज़द में कहना ग़लत न होगा—समूचा भारतीय समाज है। अपनी मिट्टी के रंगों का भूगोल है। जाहिर है उसी माटी-पानी में गुँथा-मड़ा, अवाक् कर देने वाली विसंगतियों में जीता, साँसें भरता वह आमजन है, जो व्यवस्था और पूँजी की मिलीभगत की विसात का मोहरा बना हुआ है। ग़ज़ब तो यह है, उसके ज़हालत और संघर्ष को कहीं विराम मिलता हुआ नज़र नहीं आ रहा।
यह भी कहना चाहता हूँ, महिला कथाकारों पर जिस तरह के सीमा संकेत लगाए जाते हैं, दायरों और दरीचों के सन्दर्भ में, चित्रा जी उन सभी सीमाओं का अतिक्रमण सहज रूप से इसलिए कर सकी हैं कि उनका संवेद घर-परिवार-रिश्ते-नातों की बारिकियों को उसके भीतरी संवेगों में जिस नफ़ासत से कथात्मक सौन्दर्य में बाँधता है, उसी गहराई और कलात्मकता से देहरी के बाहर निकल अपसंस्कृति की आँधी में डूब रही ज़िन्दगी के तनावों और आर्थिक दबावों, चाहे वह एक्जीक्यूटिव क्लास हो या फ्रीलांसर वर्ग—सभी को रेखांकित करने में सफल होती हैं।
मैं यह भी कहना चाहता हूँ, उनकी ज्यादातर कहानियों के चरित्र भावुकता की तर्कहीन नदी में न बहकर आर्थिक दबाव की परिणतियों को स्वीकार करते हुए ही अधिक प्रभावपूर्ण बनते हैं।
—शानी
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2011 |
Edition Year | 2023, Ed. 2nd |
Pages | 158p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan - Remadhav |
Dimensions | 22.5 X 14 X 1.5 |