— यह कृति नाट्यलोचन के क्षेत्र में अपनी विशेषताओं के कारण एक महत्त्वपूर्ण वरेण्य उपलब्धि कही जाएगी। अपनी बात कहने लिए डॉ. गोविन्द चातक के पास समर्थ वैचारिक क्षमता और सशक्त भाषा है। उन्होंने नाटक की बदलती हुई रूपरेखा को बड़े परिनिष्ठ रूप में और सूक्ष्मांकनों के साथ प्रस्तुत किया है। इसलिए यह पुस्तक राकेश के नाट्य वैशिष्ट्य के अध्ययन के लिए एक पूर्ण और आवश्यक पुस्तक है। डॉ. चातक की राकेश पर लिखी यह कृति उनकी परिपक्व चिन्तन-प्रवृत्ति और मँझी हुई भाषा-शैली में रूपायित हुई है।
इस कृति की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें मोहन राकेश के नाटकों की उपलब्धि और सम्भावना पर विशद विवेचन हुआ है।
हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर कोई नाम उभरता है तो मोहन राकेश का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं, किन्तु मोहन राकेश का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है। इसलिए नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक लिखे, बल्कि इसलिए कि हिन्दी नाटक को अँधेर बन्द कमरे से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहन से उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। वस्तुत: मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु समकालीन भारतीय नाट्य-प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया, वरन् उनके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर अग्रसर किया।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2003 |
Edition Year | 2024, Ed. 5th |
Pages | 195 |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 2 |