जयशंकर प्रसाद के बाद जगदीशचन्द्र माथुर की नाट्य-कृतियाँ एक नई दिशा की ओर संकेत करती हैं। उनकी पहली कृति ‘कोणार्क’ को आधुनिक नाटक का ऐसा प्रस्थान–बिन्दु माना जाता है जहाँ हिन्दी नाटक एक नए बोध के लिए आकुल हो रहा था। उन पर लिखी गोविन्द चातक की यह पुस्तक माथुर के कृतित्व को कई कोणों से देखने–परखने का एक प्रयास है। जिसमें नाट्य–रचना की मूल प्रेरणा, नाटककार की अनुभूति, युग और समाज–बोध, मानवीय संवेदना और नाटककार का जीवन–दर्शन तथा समकालीन ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों से जूझने की क्षमता तक पहुँचने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दृष्टि में यह पुस्तक पाठक को नाटककार की सर्जनात्मक क्षमता और भावात्मक परिवेश दोनों से अवगत कराती है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1973 |
Edition Year | 2019, Ed. 4th |
Pages | 144p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |