औद्योगिकीकरण ने हमारे जीवन को एक तरफ़ सुविधा-सम्पन्न बनाया तो दूसरी तरफ़ कई सामाजिक विकृतियों और विद्रूपताओं को भी बढ़ावा दिया। ऐसी ही एक विकृति है—बालश्रम, जो तमाम घोषणाओं और क़ानूनी कसरतों के बावजूद आज भी हमारे सामने भयावह रूप में उपस्थित है।
ग़रीबी की कोख से जन्मी इस अमानवीय प्रथा को राजनेता और अपराधी तत्त्वों के गठजोड़ ने कैसे अपने हित में इस्तेमाल किया और कर रहे हैं, इसी को इस नाटक में संवेदनशील भाषा और सन्तुलित रंग-संयोजन के माध्यम से नाटककार ने दर्शाया है।
समकालीन जीवन के बदलते मूल्यों, आदर्शों के क्षरण और असुरक्षा बोध की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ नाटक का सुखान्त नाटककार की सकारात्मक दृष्टि का संकेत देता है। नाट्यप्रेमी पाठकों, रंगकर्मियों और रंग-निर्देशकों को यह नाटक अपनी विचारोत्तेजकता तथा सटीक संवादों के कारण निश्चय ही प्रभावित करता है। यही कारण है कि बिहार के छोटे शहरों-क़स्बों से लेकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली तक, अनेक मंचों पर इसका सफल मंचन हो चुका है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2003 |
Edition Year | 2003, Ed. 1st |
Pages | 70p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1 |