शहरी जीवन के हाशियों और क़स्बों की निम्नवित्तीय कथाओं के चर्चित बांग्ला लेखक समरेश बसु का यह उपन्यास परम्परागत पारिवारिक ज़िन्दगी के अन्तर्विरोधों, बेरोज़गारी, प्रेम और उसमें दख़ल देती व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं की कहानी है।

अपने बहुविध-बहुरंगी निजी अनुभवों का उपयोग करके अनेक कहानियों को निराशा, जिजीविषा और करुणा के प्रामाणिक दस्तावेज़ बना देने की लेखक की क्षमता इस उपन्यास में भी साफ़ दिखाई देती है। यह कुछ बांग्ला कथा-शैली का कमाल है और कुछ स्वयं समरेश बसु की संवेदना का कि जीवन यहाँ अपनी पूरी सघनता के साथ जस का तस चित्रित हेाता लगता है। परिस्थितियों से त्रस्त कथानायक का यह बयान उन तमाम विडम्बनाओं पर एक साथ रोशनी डालता है, जो उसने सही है—‘लोग-बाग उँगलियों पर गिनकर बता देते हैं कि दुनिया में कौन-कौन से आश्चर्य हैं। मेरे पिताजी को किस नम्बर पर रखा जाएगा, यही जानने की ख़्वाहिश मुझे हुई थी।...बसीरहाट के नाना की सम्पत्ति अपने नाम लिखा लेना, पुन: गृहत्याग, फिर लौटकर आना। पता नहीं अब भी उन्हें कोई बड़ा कारनामा करके दिखाना है या नहीं।’

खुकु यानी जोछना यानी ज्योत्‍स्ना को पाकर उसके जख़्म कुछ देर को भरते हैं। लेकिन वह भी हमेशा के लिए नहीं हो पाया। सत्तर के दशक में जब देश राजनीतिक उठापटक का सामना कर रहा था, युवा पीढ़ी भी अलग-अलग दिशाओं में बदल रही थी। खुकु को भी अपनी इच्छाओं को अभिव्यक्त करना था, जिसका नतीजा भीषण अलगाव में हुआ।

बेरोक-टोक अगर कुछ जारी रहा तो नियति का दुष्चक्र।

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Language Hindi
Format Paper Back
Publication Year 1984
Edition Year 2007, Ed. 2nd
Pages 168p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 21.5 X 14 X 1
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Samresh Basu

Author: Samresh Basu

समरेश बसु

समरेश बसु ने लगभग दो सौ लघु कथाएं और 100 उपन्यास लिखे हैं। उनका जीवन विभिन्न प्रकार के अनुभवों से भरा हुआ है। और अपने इन्हीं अनुभवों को चाहे वे राजनैतिक हों, श्रमिक के जीवन के हों या सैक्स सबंधी, अपने लेखन के द्वारा कागज़ पर उकेरा है। इसी कारण से कुछ समय के लिए उनके दो उपन्यासों पर पाबंदी भी लगाई गई थी। उन्होंने अपना पहला उपन्यास केवल 21 वर्ष की आयु में लिखा था।

उनके द्वारा बंगाल की ग्रामीण परिवेश पर जीवन की वास्तविकताओं को आईना दिखलाते हुए लिखे गये उपन्यास साहित्य जगत में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।

वीरेन्द्रनाथ मण्डल ने उपन्यास के अनुवाद में कहानी के मौलिक मर्म को व उपन्यासकार की विचारधारा को अति उत्तम रूप से पाठकों के सामने रखा है। अनुवाद होते हुए भी यह अपनी मौलिकता नहीं खोती है।

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