Ulua, Bulua Aur Main

Edition: 2017, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Ulua, Bulua Aur Main
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इस ग्लोबलाइज़्ड दुनिया में जहाँ चारों ओर समरूपता का हठ पाँव पसार रहा है, ऐसे में ‘उलुआ, बुलुआ और मैं’ भरी दुपहरी में छाँव की तरह है। आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई यह रचना व्यक्ति के साथ-साथ अपने समय, अंचल और ग्राम्य-संस्कृति की भी कथा कहती है। वैसे तो हर व्यक्ति का जीवन अगर दर्ज हो जाए तो महाकाव्य का विषय है। मुक्तिबोध ने सच ही कहा है कि 'मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में चमकता हीरा है।' इस रचना की चमक इतिहास की धार में बह रहे क़िस्से, शब्द और लोग-बाग हैं जिन्हें लेखक ने शिद्दत के साथ पकड़ने की कोशिश की है। यह रचना आज़ादी के पहले और उसके बाद के कुछ समय के बदलावों का साहित्य रचती है। साहित्य की परम्परा से वाक़िफ़ लोगों को इसमें रेणु, रामवृक्ष बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय जैसे मिट्टी के रचनाकारों की छवि दिखाई पड़ सकती है। साथ ही वैसे इतिहास और संस्कृतिकर्मी जो लोगों के सुख-दु:ख, खान-पान, आचार-व्यवहार, लोकगाथाओं आदि को भी इतिहास-अध्ययन का विषय मानते हैं, उनके लिए भी यह रचना फलदायी साबित होगी। शैली के तौर पर यह कभी आपको आत्मकथा, कभी उपन्यास, कभी कहानी तो कभी ललित निबन्ध का अहसास कराती चलती है।

कुल मिलाकर ‘उलुआ, बुलुआ और मैं' अपने समय और समाज के निर्वासित लोगों, शब्दों, गँवई संस्कृति और समय की आपा-धापी में छूट रहे जीवन के विविध राग-रंगों को फिर से साहित्य की दुनिया में पुनर्जीवित करने का एक प्रयास है।

—अरुण कमल

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Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 2017
Edition Year 2017, Ed. 1st
Pages 264p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
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Ramsagar Prasad Singh

Author: Ramsagar Prasad Singh

रामसागर प्रसाद सिंह

रामसागर प्रसाद सिंह का जन्म अक्टूबर, 1938 में बिहार के ज़िला बेगूसराय, पहसारा ग्राम के एक किसान परिवार में हुआ। इनकी आरम्भिक शिक्षा बेगूसराय के स्थानीय विद्यालय में हुई।

भागलपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर में गोल्डमेडलिस्ट रहे रामसागर प्रसाद सिंह ने अध्यापन का आरम्भ कार्यानन्द शर्मा कॉलेज, लखीसराय से किया। 1968 से 1984 तक विक्रमशिला महाविद्यालय, कहलगाँव (बिहार) के हिन्दी विभाग में अध्यापक रहे। तत्पश्चात् टी.एन.बी. कॉलेज, भागलपुर विश्वविद्यालय से सन् 2000 में प्रोफ़ेसर-पद से सेवानिवृत्त हुए।

अपनी विशिष्ट शिक्षण-शैली एवं कथात्मक व्याख्यान कला के लिए जाने जानेवाले रामसागर प्रसाद सिंह की रुचि एवं ज्ञान का क्षेत्र भारतीय मिथक, मध्यकालीन साहित्य एवं लोक-संस्कृति है। 

इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं : 'भस्मांकुर : एक समीक्षा', 'गीतिनाट्य की परम्परा में राजा परीक्षित का अध्ययन', 'निबन्ध-प्रकाश', 'व्याकरण प्रकाश', 'भाषा प्रकाश', 'नहिं दरिद्र सम दु:ख जग माहीं', 'मटमैली संस्कृति के सात रंग।' इसके अतिरिक्त साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में लेखन एवं स्थानीय आकाशवाणी केन्द्र में व्याख्यान।

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