Surya Pranam

Essay
Author: Vimal De
Translator: Dilip Kumar Banerjee
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Surya Pranam
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‘सूर्य प्रणाम’ का स्थान-काल, पात्र तथा घटनाएँ सभी वास्तविक हैं। मैं पर्यटक हूँ वास्तविक घटनाओं का उल्लेख करना ही मेरा धर्म है। यथार्थ के वर्णन में एकरसता आ जाती है। मैं एक पथिक हूँ अपनी यात्राओं के दौरान जो भी मैं देखता हूँ मुझे जो अनुभव होता है, उसी को मैं अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ। मैंने अपनी यात्राओं के दौरान बहुत से मन्दिर, मठ और पूजास्थल देखे हैं, बहुत से तीर्थों में जाकर शीश नवाया है। हिमालय के बहुतेरे तीर्थस्थलों में मैंने देव-स्पर्श पाया, हिमालय की पुण्यभूमि में ही पुण्यात्माओं का आविर्भाव सम्भव है। एंडीज की यात्रा ने मुझे तपस्या की अन्तिम सोपान पर पहुँच दिया था। एंडीज तथा मध्य व दक्षिणी अमरीका की प्राचीन सभ्यता में ज्यों सूर्य को मूल देवता का स्थान प्राप्त था, त्यों ही जापान का मूल देवता भी सूर्य है। जापान के सम्राट को सूर्य का प्रतिनिधि मानते हैं, जापानी पताका का प्रतीक चिह्न भी सूर्य है। सूर्य का प्रभाव जापानियों के चरित्र में भी दिखाई देता है। सूर्य शक्ति और ओज का प्रतीक है। ‘सूर्य प्रणाम’ ग्रन्थ सूर्य-देवता के प्रति मेरा अर्घ्य है। सूर्य को देवता माननेवाले जापान और एंडीज में मैंने जो कुछ देखा, सुना और जाना, उसी अनुभव को मैं इस लेखन के ज़रिए अपने पाठकों तक पहुँचा रहा हूँ। —इसी पुस्तक की भूमिका से
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Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2012
Edition Year 2012, Ed. 1st
Pages 320p
Translator Dilip Kumar Banerjee
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1.5
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Editorial Review

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Author: Vimal De

विमल दे

जन्म सन् 1940, कोलकता में। बचपन से बन्धनमुक्त होकर घर से भागकर बहुत बार हिमालय का चक्कर लगाया। 1956 में जब तिब्बत का दरवाज़ा विदेशियों के लिए लगभग बन्द हो चुका था, एक नेपाली तीर्थयात्री दल में शरीक होकर तमाम अड़चनों से जूझते हुए विमल दे ल्हासा से कैलास तक की यात्रा कर आए।

वे 1967 में साइकिल पर विश्व-भ्रमण के लिए निकले। एक पुरानी साइकिल, जेब में कुल अठारह रुपए, मन में अदम्य उत्साह और साहस, यही उनकी पूँजी थी। रास्ते में छिटपुट काम कर रोटी का जुगाड़ किया, फिर आगे बढ़ते रहे। इस तरह पाँच साल तक दुनिया की सैर करने के बाद वे 1972 में भारत लौटे। इन यात्राओं का विवरण ‘दूर का प्यासा’ नामक ग्रन्थ में उन्होंने 7 खंडों में लिखा। वे सन् 1972 से 1980 तक मुख्यतः पर्वतारोही पर्यटक के रूप में विश्व के पर्वतीय स्थलों की यात्रा करते रहे। 1981 से 1998 के बीच उन्होंने तीन बार उत्तरी ध्रुव और दो बार दक्षिणी ध्रुव की यात्रा की।

उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं—‘महातीर्थ के अन्तिम यात्री’, ‘महातीर्थ के कैलास बाबा’ और ‘सूर्य प्रणाम’।

फ़्रांस की संस्थाओं तथा वाशिंगटन के नेशनल गेओग्राफ़िक सोसाइटी ने विमल दे को कई बार सम्मानित किया है। वे अमेरिकी पोलर सोसाइटी का आजीवन सदस्य रहे हैं तथा ब्रितानवी पोलर सोसाइटी का परामर्शदाता भी। अपने ढंग का अनूठा पर्यटक और दार्शनिक होने के साथ ही वे एक मानव प्रेमी हैं और निरन्तर जनहितकारी कार्यों में जुटे रहते हैं।

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