Main Hun Kolkata Ka Foreign Return Bhikhari

Author: Bimal Dey
Edition: 2024, Ed. 2nd
Language: Hindi
Publisher: Lokbharti Prakashan
As low as ₹224.25 Regular Price ₹299.00
25% Off
In stock
SKU
Main Hun Kolkata Ka Foreign Return Bhikhari
- +
Share:

आत्मकथात्मक शैली में लिखे गये इस उपन्यास में एक ऐसे व्यक्ति के जीवनानुभव का वर्णन है जिसने होश सम्भालते ही खुद को सियालदह स्टेशन परिसर में भिखारी के रूप में पाया।

एक उस्ताद से पाकिटमारी, उठाईगीरी आदि सीखकर इस कला को आजमाने के प्रयास में वह पहले दिन ही पकड़ा गया। उसे मारने-पीटने के बजाय उस दयालु सज्जन ने उसे कुछ दिनों तक परखने के बाद अपने घरेलू नौकर के रूप में रख लिया। अपने आश्रय दाता ‘दाआबू’ के यहाँ उसने रसोई का काम सीखा।

युवा होते-होते वह अच्छा घरेलू नौकर और रसोइया बन गया था। थोड़ा-बहुत लिखना-पढ़ना भी सीख गया था। एक दिन दाआबू उसे लन्दन ले गये। दाआबू ने उसे डायरी लिखने को कहा, बोले कि वह रोज के अनुभवों को अपनी भाषा में लिखना शुरू करे। उनके कहने पर ही उसने अपने अनुभवों और स्मृतियों को सँजोना शुरू किया। इस तरह दुनिया के सामने आया एक अकल्पनीय ज़िन्दगी का कभी न भूलने वाला यह वृत्तान्त!

दाआबू से सम्पर्क होने के बाद की सारी घटनाएँ हैरतअंगेज और उसकी उन्नति में सहायक रहीं। उन्होंने उसके लिए एक शिक्षक का भी प्रबन्ध कर दिया जिसके घर जाकर पढ़ना-लिखना सीखना पड़ता। सीखना यानी सब-कुछ सीखना—बैठने का ढंग, चलने का ढंग, मुस्कराकर बातचीत का ढंग। ...दरअसल वह शिक्षक जानवर को आदमी बनाने में था यानी वह धीरे-धीरे आदमी बनने लगा था...।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 2013
Edition Year 2024, Ed. 2nd
Pages 248p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1.5
Write Your Own Review
You're reviewing:Main Hun Kolkata Ka Foreign Return Bhikhari
Your Rating
Bimal Dey

Author: Bimal Dey

बिमल दे

जन्म सन् 1940, कोलकाता में। बचपन से घर से भागकर कई बार हिमालय का चक्कर लगाया। 1956 में जब तिब्बत का दरवाज़ा विदेशियों के लिए लगभग बन्‍द हो चुका था, एक नेपाली तीर्थयात्री दल में शरीक होकर तमाम अडचनों से जूझते हुए बिमल दे ल्हासा से कैलास तक की यात्रा कर आए।

वे 1967 में साइकिल पर विश्व-भ्रमण के लिए निकले। एक पुरानी साइकिल, जेब में कुल अठारह रुपए, मन में अदम्य उत्साह और साहस, यही उनकी पूँजी थी। रास्ते में छिटपुट काम कर रोटी का जुगाड़ करते, फिर आगे बढ़ते। इस तरह पाँच साल तक दुनिया की सैर करने के बाद वह 1972 में भारत लौटे। इन यात्राओं का विवरण ‘दूर का प्यासा’ नामक ग्रन्थ में उन्‍होंने 7 खंडों में लिखा है। वे 1972 से 1980 तक मुख्यतः पर्वतारोही पर्यटक के रूप में विश्व के पर्वतीय स्थलों की यात्रा करते रहे। 1981 से 1998 के बीच उन्‍होंने तीन बार उत्तरी ध्रुव और दो बार दक्षिणी ध्रुव की यात्रा की। उनकी प्रमुख पुस्‍तकें हैं—‘मैं हूँ कोलकाता का फॉरेन रिटर्न भिखारी’, ‘महातीर्थ के अन्तिम यात्री’, ‘महातीर्थ के कैलास बाबा’, ‘सूर्य प्रणाम’ आदि।

फ़्रांस की संस्थाओं ने तथा वाशिंगटन के नेशनल गेओग्राफ़‍िक सोसाइटी ने बिमल दे को कई बार सम्मानित किया है। वे अमेरिकी पोलर सोसाइटी के आजीवन सदस्य और ब्रितानवी पोलर सोसाइटी के परामर्शदाता रहे हैं। अपने ढंग का अनूठा पर्यटक और दार्शनिक होने के साथ ही बिमल दे एक मानव-प्रेमी हैं और वे निरन्‍तर जनहितकर कार्यों में जुटे रहते हैं।

Read More
Books by this Author
New Releases
Back to Top