Sarjnatmak Kavyalochan

Edition: 2014, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Lokbharti Prakashan
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Sarjnatmak Kavyalochan

हिन्दी में सर्जनात्मक काव्यालोचन का प्राय: अभाव रहा है, जिससे आलोचना की सर्जनात्मक मौलिकता अब तक स्थापित-प्रतिष्ठित नहीं हो पाई है। अभाव-रूपी इस अफाट सन्नाटे को भंग करनेवाली डॉ. ‘शीतांशु’ की यह पुस्तक ऐसी पहली सहृदय-संवेद्य, प्रगुणात्मक पुस्तक है, जिसमें लेखक ने 28 हिन्दी कविताओं के काव्यमर्म तथा अन्तर्न्यस्त साभिप्रायता को उद्‌घाटित-विवेचित किया है।

कविता का विवेचन उसकी सर्जनात्मक सार्थकता का विवेचन होता है। यह सार्थकता भावकीय प्रतिभा से कविता की कलावटी गाँठों को खोलते हुए उसके अर्थ-गह्वर में प्रवेश करने से सम्भव हो पाती है। हिन्दी काव्यालोचन अब तक अपनी लक्ष्मण-रेखा में घिरा रहा है। वह प्रवृत्तिगत, विकासात्मक, सैद्धान्तिक और वादारोपित बहस-मुबाहसे से ग्रस्त-सा है। मार्क्सवादी आलोचना को तो अपनी एकरसता में किसी भी कविता की आन्तर गहराई में उतरने से प्राय: परहेज़ ही रहा है, जिसके कारण कविता का भावन और बोधन केवल सामाजिक यथार्थ की अभिधेयात्मकता तक सीमित-प्रतिबन्धित रह गया है, जबकि उसमें अशेष प्रतीयमान, सर्जनात्मक साभिप्रायता विद्यमान होती है। यहाँ तक कि इसमें मार्क्सवादी सामाजिक यथार्थ की अनेकानेक परतें भी समाविष्ट रहती हैं।

ऐसे में प्रतीयमान आभ्यन्तर को उद्‌घाटित करनेवाली यह वह प्रतीक्षित आलोचना-कृति है, जो स्थापित करती है कि कविता की सही पहचान-परख उसके तलान्वेषित कथ्यों और अर्थच्छवियों की बहुआयामिता पर निर्भर है।

कहना होगा कि कविताओं की साभिप्राय पुनस्सर्जना के माध्यम से काव्यलोचन के नए क्षितिज का सन्धान और दिशा-निर्देश करनेवाली यह पुस्तक अब तक की निर्धारित लक्ष्मण-रेखा के बाहर जाकर हिन्दी काव्यालोचन को समृद्ध करती है। साथ ही नई आलोचकीय प्रतिभाओं को इस दिशा में सक्रिय होने हेतु आमंत्रित भी करती है। हिन्दी आलोचना में कविता के पाठकों और आलोचकों को संवेदन-समृद्ध करनेवाली एक अत्यन्त उपयोगी एवं पठनीय पुस्तक।

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Language Hindi
Binding Hard Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 2014
Edition Year 2014, Ed. 1st
Pages 272p
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1.5
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Pandeya Shashibhushan 'Shitanshu'

Author: Pandeya Shashibhushan 'Shitanshu'

पाण्डेय शशिभूषण 'शीतांशु’

 

जन्म : 13 मई, 1941

शिक्षा : पीएच. डी. (हिन्दी), डी. लिट्. (भाषा-विज्ञान), स्नातकोत्तर डिप्लोमा (अनुवाद)।

गतिविधियाँ : हिन्दी में वादमुक्त आलोचना के शिखर-पुरुष तथा सुप्रतिष्ठ सैद्धान्तिक और सर्जनात्मक आलोचक। जितनी व्यापकता और गहनता में प्रतिमानों की दृष्टि से भारतीय एवं पाश्चात्य आलोचना-सिद्धान्तों की शक्ति-सीमा पर मौलिक चिन्तन-मनन किया, उतनी ही सूक्ष्मता और प्रातिभ अन्तर्दृष्टि से हिन्दी में पहली बार कुछ प्रसिद्ध साहित्य-पाठों (कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और नाटकों) की सार्थकता और साभिप्रायता का तलोन्मेषी उद्घाटन भी किया है।

ये एक निर्भीक प्रत्यालोचक भी हैं। इन्होंने पन्त, दिनकर, मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह आदि शीर्ष साहित्यकारों द्वारा स्थापित-प्रचारित प्रत्येक भ्रान्त मतवाद का युक्तियुक्त निरसन एवं निर्मूलन किया है। साथ ही अपना प्रमाणपुष्ट प्रतिपादन भी प्रस्तुत किया है।

साहित्य-सेवा : 40 पुस्तकें तथा 350 से अधिक शोधालेख प्रकाशित।

गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर से अवकाश-प्राप्त (1977-2001) प्रोफ़ेसर। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (अक्तूबर 1988), महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा (जनवरी 2005-दिसम्बर 2007) तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद (फरवरी एवं नवम्बर 2009) में विजिटिंग प्रोफ़ेसर रहे। भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्‍ध परिषद्, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा 1991 में त्रिनिदाद एवं 1995 में पेइचिंग विश्वविद्यालय के लिए विजिटिंग प्रोफ़ेसर नियुक्त।  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा से प्रकाशित ‘तुलनात्मक साहित्य विश्वकोश’ (2008) का प्रविष्टि-लेखन करवाया एवं अतिथि-सम्पादन किया।

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा 2020 के ‘भारत भारती सम्मान’ से सम्मानित।

 

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