उषा प्रियम्वदा की कहानियाँ जीवन के सहज विडम्बनाबोध की कहानियाँ हैं। घने कुहासे की तरह त्रास जब पाठक को अपने आगोश में लेता है तो सुध-बुध खोता पाठक ख़ुद को छोड़ देता है, उसकी धीमी लय पर डूबने-उतराने को। और, जब कहानी समाप्त होती है तो पाठक ख़ुद को एक सन्नाटे में पाता है—जहाँ दुनिया-जहान की तल्ख़ सच्चाइयाँ उसे कुरेद रही होती हैं; वह प्रश्नाकुल व बेचैन हो उठता है कि आख़िर ऐसा क्यों है—यह दुनिया ऐसी क्यों है?
यह सन्नाटा है जो बोलता है और डोलता भी है और अपने साथ डुलाता भी है पाठक को। फिर वह एक संशयात्मा की तरह जीवन स्थितियों को मुड़-मुडक़र देखने को बाध्य हो जाता है।
ऐसे समय में जब रचना के लिए भी विमर्श के कई ख़ाने बना दिए गए हैं, उषा प्रियम्वदा की कहानियाँ जीवन को उसकी समग्रता में लेती हैं। इन कहानियों की त्रासदी को स्त्री-पुरुष के ख़ानों में नहीं बाँटा जा सकता है। ये मनुष्यता की त्रासदी को प्रतिबिम्बित करती कहानियाँ हैं।
रघुवीर सहाय ने कभी कहा था—जब मैं कविता पढ़कर उठूँ तो सन्नाटा छा जाए। उषा जी की कहानियों की बाबत भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2006 |
Edition Year | 2024, Ed. 5th |
Pages | 464p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 3 |