Sambharant Veshya

ज्याँ पॉल सार्त्र के लेखन और चिन्तन के केन्द्र में है—मानवमुक्ति। अस्तित्ववाद से मार्क्सवाद तक की उनकी विचार-यात्रा का केन्द्रीय तत्त्व भी शायद यही है। रंगभेद, वर्गभेद, भाषाभेद, धर्मभेद, जातिभेद से आक्रान्त मानव समाज की विडम्बनाओं की ओर ही वे इशारा नहीं करते, बल्कि इनके विरुद्ध संघर्ष में सक्रिय भागीदारी की भी तरफ़दारी करते हैं। अपने इस नाटक में उन्होंने न केवल गोरों की धूर्तता के शिकार एक हब्सी की पीड़ा को व्यक्त किया है, बल्कि इसके माध्यम से नस्लभेदी व्यवस्था पर गहरी चोट की है।
यह एक विडम्बना ही है कि पुनर्जागरण के इतने सारे आन्दोलनों के बाद भी विश्वसमाज अच्छे-बुरे तथा सही-ग़लत का निर्णय मानवीय विवेक के आधार पर लेने के बजाय जाति, नस्ल, भाषा, धर्म आदि के पूर्वग्रहों से ग्रस्त होकर लेता है। ऐसे में हर बार समाज का निचला तबक़ा ऊपरी तबक़े की चालाकियों की मार झेलने पर मजबूर हो जाता है। दक्षिणी अमेरिका की पृष्ठभूमि पर आधारित यह नाटक आज के भारतीय समाज की विसंगतियों पर भी परोक्ष चोट करता प्रतीत होता है।
Language | Hindi |
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Format | Hard Back |
Publication Year | 2006 |
Edition Year | 2006, Ed. 1st |
Pages | 90p |
Translator | Manoj Kashyap 'Bhalendu' |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 1 |
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