सागर यारा की कहानियाँ हमें बीसवीं सदी के उस दौर में ले जाती हैं जब रूमान की हैसियत एक समाजी ताक़त की होती थी। ज़िन्दगी की हक़ीक़तों से वह बराबर की टक्कर लेता था। किताबें पढ़ना, सपने देखना, ख़ुद के दायरे से निकलकर पूरी दुनिया के भविष्य के बारे में सोचना, पैसे की क़ुदरत को चुनौती देना और ज़िन्दगी के इस तरीक़े पर सवाल उठानेवाली रुकावटों से जान पर खेलकर लड़ना उस दौर के रौशन दिमाग़ों की अपनी जीवन-शैली थी, जो आज के संचार-सम्पन्न इकहरे माहौल में दूर की चीज़ लगती है।

लेकिन ऐसा नहीं कि ये आज की कहानियाँ नहीं हैं। वे सवाल, जो इन कहानियों के लिखे जाने की वजह बने, आज भी हमारे सामने हैं। आज भी आख़िरी कहानी के सफ़दर की तरह हर देशी भाषा के लेखक पूछ सकते हैं कि ‘इस मुल्क में हर आदमी, हर पेशेवाला अपना काम कर सकता है, सिर्फ़ लेखक, लेखक नहीं रह सकता। उसे या तो टीचर बनना पड़ता है या क्लर्क या मैकेनिक।’ या फिर मेरे भाईजान  की शबनम जो परम्परागत मुस्लिम घर की दीवारों से निकलकर जब दुनिया देखती है तो ज़िन्दगी से वापस प्यार करने लगती है।

सागर सरहदी मूलत: नाटककार थे, उन्होंने अनेक सफल फ़िल्मों के संवाद भी लिखे, इसलिए इन कहानियों की दृश्य और संवाद योजना हमें कहानीपन के एक अलग ही आस्वाद तक ले जाती है। ऊपर से उर्दू अफ़सानानिगारी की रवानी और अपने किरदारों से लेखक की मुहब्बत इन कहानियों को एक खास पाठ बना देता है। इस लिहाज से देखें तो डायलॉग लिखवा लो, बाबूजी की बस निकल गई, रामलीला का राम, हर्षद मेहता का सूटकेस आदि कहानियाँ गहरा और देर तक रहनेवाला असर छोड़ती हैं। सरहदी साहब को सन् ’47 के विभाजन और शरणार्थी जीवन का भी निजी तजुर्बा रहा, इस किताब में उसकी भी कुछ झलकें दिखाई देती हैं, और हिन्दी फ़िल्म-संसार की भी जहाँ उनकी रचनात्मकता के कई पहलू उजागर हुए और जिसके विरोधाभासों को भी उन्होंने जिया-झेला।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2022
Edition Year 2022, Ed. 1st
Pages 200p
Translator Not Selected
Editor Ramesh Talwar
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 21 X 13.5 X 2
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Sagar Sarhadi

Author: Sagar Sarhadi

सागर सरहदी

सागर सरहदी का जन्म 11 मई, 1933 को अविभाजित हिन्दुस्तान के पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त के ज़िला हज़ारा के बफ़ा गाँव में हुआ था।

उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा दिल्ली में हासिल की थी और मुम्बई के खालसा कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातक किया था।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं—राजदरबार, भूखे भजन न होई गोपाला, तनहाई, दूसरा आदमी, भगत सिंह की वापसी, इंटरनेशनल क्लब (नाटक); गुरु और बीस एकांकी (एकांकी-संग्रह); आवाज़ों का म्यूज़ियम, जीव जनावर, सागर यारा (कहानी-संग्रह)।

उन्होंने ‘कभी-कभी’, ‘सिलसिला’, ‘दीवाना’, ‘नूरी’, ‘अनुभव’, ‘ज़िन्दगी’, ‘चाँदनी’, ‘फ़ासले’, ‘रंग’, ‘कहो ना...प्यार है’ आदि फ़िल्मों का लेखन किया। ‘तेरे शहर में‘, ‘बाज़ार’, ‘चौसर’ जैसी बहुप्रशंसित फ़िल्मों के साथ-साथ कई धारावाहिकों, टेलीफ़िल्मों का निर्देशन भी किया। सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय रहे।

21 मार्च, 2021 को मुम्बई में उनका निधन हो गया।

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