Pratinidhi Shairy : Mirza Shauq Lakhnawi

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Pratinidhi Shairy : Mirza Shauq Lakhnawi
मौलाना अब्दुल माजिद दरियावादी ने नवाब मिर्ज़ा ‘शौक़’ लखनवी को ‘उर्दू का एक बदनाम शायर’ तो कहा ही, साथ ही यह फ़ैसला भी सुना दिया कि ‘आज उर्दू की तारीख़ में कहीं उसके लिए जगह नहीं।’ यह और बात है कि सच्चाई आख़िर सिर चढ़कर बोलती है, और अपने इसी लेख में मौलाना ने आख़िर यह बात मानी कि ‘शौक़’ की डायरी की ख़ूबियों ने उनके नाम को गुमनाम नहीं होने दिया; उन्हें बदनाम करके सही, ज़िन्दा रखा। अलावा इसके, आख़िर में वे ख़ुद को यह भी कहने के लिए मजबूर पाते हैं कि ‘मशरिक़ के बेहया सुख़नगी, उर्दू के बदनाम शायर, रुख़सत! तू दर्द भरा दिल रखता था; तेरी याद भी दर्दवालों के दिलों में ज़िन्‍दा रहेगी। तूने मौत को याद रखा; तेरी याद पर, इंशाअल्लाह, मौत न आने पाएगी।’ इस सिलसिले में स्वर्गीय प्रो. ‘मजनूँ’ गोरखपुरी की बात भी याद रखने योग्य है। लिखते हैं कि उनके एक अंग्रेज़ प्रोफ़ेसर ‘शौक़’ की ‘ज़ह्रे इश्क़’ से बेहद प्रभावित हुए और बोले, ‘तुम लोग हो बड़े कमबख़्त। यह मस्नवी और इस क़समपुर्सी की हालत में! आज यूरोप में यह लिखी गई होती तो शायर की क़ब्र सोने से लेप दी गई होती और अब तक इस मस्नवी के न जाने कितने नुस्ख़े, रंग-बिरंगे एडि‍शन निकल चुके होते।’ प्रो. ‘मजनूँ’ गोरखपुरी ने तो बल्कि इस मस्नवी का शुमार जनवादी साहित्य में किया है—“ख़वास के लिए यह ऐब है; मगर इसकी क़द्र अवाम से पूछिए।” मुहावरेदार ज़बान और दिलकश तर्ज़े-बयान, देसज और अरबी-फ़ारसी शब्दों पर एक समान अधिकार और उन्हें आपस में दूध-शक्कर कर देने की क्षमता, पात्रों का जीवन्त चरित्र-चित्रण और उनकी भावनाओं का मर्मस्पर्शी वर्णन, इश्क़े-मजाज़ी से इश्क़े-हक़ीक़ी तक की दास्तान—ये तमाम ऐसी ख़ूबियाँ हैं जो ‘शौक़’ को शायरों की पहली क़तार में ला खड़ी करती हैं। और एक मस्नवी जब रंगमंच पर पेश की जाए, फिर पूरा हॉल मातमघर बन जाए, चारों तरफ़ से सिसकियों और हिचकियों की आवाज़ें आनी लगें, कुछ लोग ग़श खाकर लुढ़क पड़ें, घर जाकर एक लड़की आत्महत्या कर ले, कुछ और लोग आत्महत्या की कोशिश करें, और फिर सरकार इस मस्नवी पर पाबन्दी लगा दे, तो आप इसे क्या कहेंगे? ‘शौक़’ को अश्लील कहनेवालों से यह बात ज़रूर पूछी जानी चाहिए कि अश्लीलता थोड़ी देर का मज़ा भले दे ले, क्या वह भावनाओं में इस तरह का तूफ़ान उठाने की क्षमता रखती है।
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Language Hindi
Format Paper Back
Publication Year 2010
Edition Year 2010, Ed. 1st
Pages 175p
Translator Not Selected
Editor Naresh 'Nadeem'
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 21.3 X 14 X 1.2
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Mirza Shauq Lakhnawi

Author: Mirza Shauq Lakhnawi

मिर्ज़ा शौक़ लखनवी

नाम : मिर्जा तसद्दुक हुसैन। लखनऊ शहर में नवाब मिर्ज़ा के नाम से जाने जाते थे।

जन्म : सन् 1783; लखनऊ।

शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। फिर अपने समय के मशहूर उस्तादों से शिक्षा पाई।

पूरा ख़ानदान हकीमों का था, 'शौक़' ने भी वही पेशा इख़्तियार किया। कुछ समय तक नवाब वाजिद शाह के हकीम रहे मगर अपना दवाख़ाना भी चलाते थे। शायरी का शौक़ बचपन से था। इस मैदान में उन्होंने अपने दौर के मशहूर शायर ख़्वाजा हैदर अली 'आतिश' की शागिर्दी इख़्तियार की। कुछ बयानों के अनुसार ख़्वाजा 'आतिश' से कुछ मतभेद के बाद 'शौक़' उनसे अलग हो गए, मगर इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है।

प्रकाशन : 'शौक़' को शोहरत उनकी ग़ज़लों या उनके वासोख़्त ने नहीं, उनकी तीन मस्नवियों ने दिलाई। ये प्रकाशित तो उनके जीवन में हुई थीं मगर उनकी मृत्यु के बाद भी इनकी लोकप्रियता बराबर बढ़ती गई।

निधन : लखनऊ में ही 30 जून, 1871 को। चारबाग़ रेलवे स्टेशन के पास उसी क़ब्रिस्तान में दफ़्न किए गए जहाँ मीर तक़ी मीर, मीर हसन, इंशा, मसहफ़ी, नासिख़ और आतिश जैसे चोटी के शायर आराम फ़रमा रहे हैं।

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