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Pratinidhi Shairy : Mirza Rafi 'Sauda'-Paper Back

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मीर तक़ी मीरके समकालीन मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा18वीं सदी के चार प्रमुख उर्दू शायरों में गिने जाते हैं। आम तौर पर सौदा को क़सीदे का शायर समझा जाता है, और इसमें कोई शक नहीं कि, सौदा के कुछेक क़सीदे ग़ज़ब के हैं। लेकिन सच बात यह है कि सौदा को इस रूप में पेश करना उनके साथ नाइंसाफ़ी से कुछ कम नहीं है। अपनी हज्वियाती नज़्मों (निन्दा-काव्यों) में और अपने शह्र-आशोवों में सौदा का हमें एक और ही रूप दिखाई देता है जो न तो उनके क़सीदों में नज़र आता है और न उनकी ग़ज़लों में। इन हज्वियाती नज़्मों और शह्र-आशोवों में सौदा अपने वक़्त की कड़वी सामाजिक सच्चाइयों के बारे में, 18वीं सदी की पतनशील सामन्ती सभ्यता के बारे में जिस स्पष्ट दृष्टि का परिचय देते हैं, वैसी दृष्टि उनके किसी भी अग्रज या समकालीन शायर के यहाँ नहीं दिखाई देती। मीर और दर्द के यहाँ भी नहीं। इसमें शक नहीं कि सौदा ख़ुद इस सामन्ती संस्कृति से जुड़े हुए रहे और इसीलिए इसके पतन से उनका प्रभावित होना स्वाभाविक था, उनका अफ़सोस करना भी उतना ही स्वाभाविक था। लेकिन सौदा इस पतनशील संस्कृति का मातम ही नहीं करते, बढ़-चढ़कर उन लोगों पर चोटें करते हैं, उनकी क़लई खोलते हैं जो इस पतन के लिए ज़िम्मेदार थे। इस सिलसिले में सौदा ने जादू-बयानी का जो परिचय दिया है, वह अपनी मिसाल आप है।

अकसर आलोचकों ने मीर और सौदा के तुलनात्मक अध्ययन के प्रयास किए हैं, और यह नतीजा निकाला है कि मीर सौदा से कोसों आगे हैं। आलोचकों की इस राय में बहुत कुछ सच्चाई है। ख़ासकर ग़ज़लों में जहाँ मीर का अन्दाज़े-बयाँ दिल को छू लेने की हैसियत रखता है, वहीं सौदा का अन्दाज़े-बयाँ ज़्यादातर भाषा के खिलवाड़ों तक सीमित रहता है। फिर भी इसमें शक नहीं कि सौदा को कुछ कम करके आँकना ग़लत होगाख़ासकर हजो और शह्र-आशोब जैसी विधाओं में उनका कोई जवाब नहीं है। ख़ुद उन्हीं के शब्दों में कहें तो सौदा हिन्द के शायरों के पैग़म्बर तो नहीं हैं लेकिन सुख़न कहने में उन्‍हें एज़ाज़ ज़रूर हासिल है।

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Language Hindi
Binding Paper Back
Translator Not Selected
Editor Naresh 'Nadeem'
Isbn 10 8171197159
Publication Year 2001
Edition Year 2001, Ed. 1st
Pages 188p
Price ₹60.00
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 21.3 X 12 X 1
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Mirza Rafi 'Sauda'

Author: Mirza Rafi 'Sauda'

मिर्ज़ा रफ़ी ‘सौदा

नाम : मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी।

जन्म : देहली, हिजरी 1125 (1713 ई.) में। कुछ तज्‍़करों के अनुसार 1712 ई. में।

जीवनवृत्ति : पहले सुलैमान कुली ख़ान 'वदाद' के और फिर अपने ज़माने के मशहूर शायर शाह 'हातिम' के शागिर्द। ख़ुद 'सौदा' के शागिर्दों में सम्राट शाह आलम भी शामिल थे। अब्दाली और मराठों की ग़ारतगरी के बाद तक़रीबन साठ की उम्र में देहली छोड़ी। कुछ साल फ़र्रुख़ाबाद के नवाब अहमद ख़ान के मुलाज़िम और उस्ताद रहे और नवाब की मृत्यु के बाद फ़ैज़ाबाद चले गए जो तब अवध की राजधानी था। नवाब शुजाउद्दौला के मुलाज़िम हुए। राजधानी जब लखनऊ लाई गई तो ख़ुद भी वहीं आ गए। कुछ समय बाद नवाब से अनबन हुई पर जल्द ही समझौता भी हो गया। नवाब की ओर से ‘मलकुश्शुअरा’ का ख़िताब मिला और छह हज़ार रुपए सालाना का वज़ीफ़ा बाँधा गया।

प्रकाशन : ग़ज़ल, मर्सिया, क़सीदा, हजो, तज़मीन आदि बहुत सी विधाओं में काव्य-रचना। एक दीवान फ़ारसी और एक उर्दू में उपलब्ध। एक तज्‍़करा भी लिखा जो अब नहीं मिलता।

निधन : हिजरी 1195 (1781 ई.), लखनऊ में।

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