Marxwad Aur Bhasha Ka Darshan

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Marxwad Aur Bhasha Ka Darshan

मार्क्सवाद और समकालीन भाषा-विज्ञान के सम्बन्धों के मद्देनज़र, यह सवाल किया जा सकता है कि क्या ‘मार्क्सवादी भाषा-विज्ञान’ जैसी कोई चीज़ मौजूद है? और इसका उत्तर देने में कोई हिचक या कठिनाई नहीं महसूस होती क्योंकि मार्क्सवाद मानव-सभ्यता के भौतिक-आत्मिक विकास का इतिहास प्रस्तुत करते हुए मानव-भाषाओं की व्याख्या के प्रति एक सुनिश्चित ‘अप्रोच’ प्रस्तुत करता है और एक सुनिश्चित पद्धति लागू करते हुए कुछ सुनिश्चित स्थापनाएँ प्रस्तुत करता है।

एक सामाजिक एवं विचारधारात्मक परिघटना के रूप में, भाषा की प्रकृति और प्रकार्यों पर मार्क्सवादी चिन्तन को 1920 और 1930 के दशक में सोवियत भाषा-वैज्ञानिकों ने बहुपक्षीय रूप में आगे बढ़ाया। 1929 में प्रकाशित वी.एन. वोलोशिनोव की पुस्तक मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन पहली ऐसी पुस्तक थी जिसमें भाषा-विज्ञान के कुछ प्रमुख आधारभूत प्रश्नों पर मार्क्सवादी विश्व-दृष्टिकोण और पद्धति से विचार करने का प्रयास दिखाई देता है। वोलोशिनोव ने विचारधारा और भाषा के प्रति सॉस्युर के संरचनावाद और विटगेंस्टाइन के भाषायी दर्शन से सम्बद्ध परम्पराओं से सर्वथा अलग ‘अप्रोच’ अपनाया तथा संकेत-विज्ञान और विमर्श-सिद्धान्त की ऐसी प्रणालियाँ प्रस्तावित कीं जो मार्क्सवादी साहित्यिक आलोचना को कई धरातलों पर समृद्ध बनाने की सम्भावना से युक्त थीं। मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन पहला संस्करण 1929 में और दूसरा संस्करण 1930 में प्रकाशित हुआ। इसमें वोलोशिनोव ने भाषा और विचारधारा के बीच के सम्बन्धों का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया, वह अपने कई विवादास्पद उपप्रमेयों और उपांगों के बावजूद, भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में मार्क्सवाद को लागू करने का अभूतपूर्व उदाहरण था। न केवल दशकों बाद तक, मार्क्सवादी भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में मार्क्सवादी भाषा-विज्ञान इसे एक सन्दर्भ-बिन्दु के रूप में देखता रहा और इसके द्वारा प्रस्तुत प्रस्थापनाओं तथा उठाए गए अनसुलझे प्रश्नों से जूझता रहा, बल्कि आज भी यह प्रक्रिया जारी है।

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Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2002
Edition Year 2003, Ed. 1st
Pages 220p
Translator Vishwanath Mishra
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 21.5 X 14 X 1
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Author: V. N. Voloshinov

वी.एन. वालोशिनोव

जन्म : 30 जून, 1895; रूस।

रूसी भाषाविज्ञानी वोलोशिनोव प्रसिद्ध बख़्तीन सर्किल के एक सदस्य थे जिसके सैद्धान्तिक नेता मिखाइल मिखाइलोविच बख़्तीन माने जाते रहे हैं। कागान, मद्वेदेव, वी.एन. वालोशिनोव, पम्पियांस्की व सोलेरतिंस्की सर्किल के अन्य सदस्य थे। बख़्तीन सर्किल का विचार-जगत एकाश्मी और सुबद्ध नहीं था। वैज्ञानिक संज्ञान और प्रतीकात्मक रूपों के बारे में कास्सिरेर के विचारों के गहन प्रभाव के बावजूद वोलोशिनोव और मद्वेदेव के लेखन की सर्किल के अन्य पुरोधाओं से कुछ महत्‍त्‍वपूर्ण भिन्नताएँ हैं जो उन्हें मार्क्सवादी विचारों के दायरे में ज़्यादा विश्वासपूर्वक रखने का आधार देती हैं। उनके लेखन का मार्क्सवादी चरित्र अधिक मुखर था।

वोलोशिनोव के लेखन की शुरुआत 1918 के आसपास वितेब्स्क में हुई, जहाँ बख़्तीन ग्रुप के लोग गृहयुद्ध की कठिनाइयों से बचने के लिए रह रहे थे। उसी समय वहाँ मालेविच और शागाल जैसे अवाँगार्द कलाकार भी रह रहे थे। वहाँ बख़्तीन सर्किल के सदस्यगण सिर्फ़ अकादमिक दार्शनिक गतिविधियों तक सीमित न रहकर उस दौर की रैडिकल सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदारी भी करते थे। पावेल मद्वेदेव वितेब्स्क सर्वहारा विश्वविद्यालय के रेक्टर पद पर नियुक्त हो गए थे और नगर की सांस्कृतिक पत्रिका ‘इस्कुस्त्वो’ (कला) का सम्पादन भी करते थे। 1924 में लेनिनग्राद आने के बाद का समय बख़्तीन सर्किल के सदस्यों की महत्त्वपूर्ण कृतियों का रचनाकाल था। यह सिलसिला 1928 में सर्किल के बिखरने तक चलता रहा जब ‘सेंट पीटर्सबर्ग धार्मिक-दार्शनिक समाज’ नामक संगठन से सम्बन्ध के कारण बख़्तीन को दस वर्ष के लिए सोलोवेत्स्की द्वीप पर निर्वासित कर दिया गया। बाद में गोर्की और लूनाचार्स्की के हस्तक्षेप के कारण सजा घटाकर उन्हें छह वर्ष के लिए कजाकिस्तान भेज दिया गया। वोलोशिनोव 1934 तक लेनिनग्राद में ‘हर्जेन शिक्षाशास्त्रीय संस्थान’ में काम करते रहे। 1934 में ही उन्हें तपेदिक हुआ और दो वर्ष बाद एक सेनेटोरियम में उनका देहान्त हो गया।

निधन : 13 जून, 1936

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