बीसवीं सदी के आख़िरी वर्ष भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में साम्प्रदायिकता और जाति के उभार के वर्ष भी रहे हैं। समय के इस मोड़ पर हमने अचानक पाया कि जैसे आधुनिकता और प्रगतिशीलता के मूल्य सहसा हमारा साथ छोड़ गए और हम विकल होकर धर्मों और जातियों की शरण ढूँढ़ने लगे। इसी प्रक्रिया में हमने असहिष्णुता और हिंसा के अनेक रूप भी देखे।

यह पुस्तक 1989 से 1996 तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों, क़स्बों और गाँवों में हुए साम्प्रदायिक और जातीय दंगों की रिपोर्टिंग का संकलन है। ये उस दौर के दंगे हैं जब मंडल और कमंडल (अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण और राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद) आन्दोलन अपने चरम पर थे। इसके परिणामस्वरूप पहले साम्प्रदायिक दंगे हुए, फिर जातीय दंगे।

यह पुस्तक पत्रकारिता में रुचि रखनेवाले सामान्य पाठकों और पत्रकारिता के छात्रों के लिए भी उपयोगी है, क्योंकि लेखक ने दंगों की रिपोर्टिंग कैसे की जाती है, इसका वर्णन इसमें किया है।

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Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2007
Edition Year 2007, Ed. 1st
Pages 159p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1
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Author: Manoj Mishra

मनोज मिश्र

बिहार के पिछड़े इलाक़े पूर्वी चम्पारण के पजिअरवा गाँव के रहनेवाले मनोज मिश्र ने राँची विश्वविद्यालय से एम.कॉम करने के बाद 1985 में पत्रकारिता शुरू की। जुलाई 1986 में ‘जनसत्ता’ में अंशकालिक संवाददाता बने। 1989 में जनसत्ता के कार्यालय संवाददाता बनकर मेरठ गए। जून 1996 तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रिपोर्टिंग की। 1996 से दिल्ली ‘जनसत्ता’ में। पहले उप-मुख्य संवाददाता और फिर मुख्य संवाददाता की ज़िम्मेदारी। इस दौरान सामान्य रिपोर्टिंग के अलावा ‘जनसत्ता’ में विभिन्न विषयों पर उनके लेख, रपट प्रकाशित हुए। देश की कई महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं—‘नवभारत टाइम्स’, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘चौथी दुनिया’ आदि में अनेक लेख प्रकाशित हुए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली में काम करने के दौरान पुरस्कार मिले जिनमें उल्लेखनीय हैं—दिल्ली विधानसभा की रिपोर्टिंग के लिए वर्ष 2002 का ‘सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टिंग पुरस्कार’ और दिल्ली में हिन्दी अकादमी का पत्रकारिता में योगदान के लिए पुरस्कार।

‘मैंने दंगा देखा’ उनकी अपनी रिपोर्ट पर आधारित एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक।

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