आचार्य ने पदावली को विशेष पारिभाषिक रूप दिया है। अपनी परिभाषाओं को कृष्णचन्द्र जी खोलते भी चलते हैं। आचार्य का प्रतिपादन भी बड़ा कसा-गठा है, उसके विचार-सूत्र अपनी बुनावट में निबिड़ परस्परभाव के साथ आपस में गझिन गुँथे हुए हैं।
आपको याद न दिलाना होगा कि आचार्य कृष्णचन्द्र भट्टाचार्य ने स्वातंत्र्य आन्दोलन के समय विचार के स्वातंत्र्य—स्वराज—का उद्घोष किया था। अंग्रेज़ी में किया था, जो विचार की भाषा बन चली थी। और है। पर उनके कथन में सहज ही ऊह्य और व्यंजित था कि ऐसे स्वराज का मार्ग अपनी भाषा के ही द्वार की माँग करता है।
प्रस्तुत निबन्ध में उन्होंने काण्ट के दर्शन का नितान्त स्वतंत्र स्थापन-प्रतिपादन किया है जो अपनी तरह से विलक्षण है। इसके लिए उन्होंने भाषा भी अपनी ही ली है। जहाँ तक मैं जानता हूँ, बांग्ला में यह उनकी अकेली रचना है। पर इस एक रचना से ही स्पष्ट है कि वे अपने शेष चिन्तन को भी बांग्ला में विदग्ध अभिव्यक्ति दे सकते थे। उनके इस एक प्रौढ़ लेखन में भाषा की सम्भावनाओं का स्पष्ट, समृद्ध इंगित है।
आचार्य संस्कृत के निष्णात पण्डित थे। उनकी पदावली यहाँ स्वभावत: पुराने परिनिष्ठित शब्दों की ओर मुड़ती है पर इस मार्ग पर वे स्वभावत: ही नहीं, 'स्वरसेन’ चलते दिखते हैं। पुरानी पदावली रूढ़ ही नहीं है—जो कि कोई भी पदावली होती है—उसमें महत् लोच है। आचार्य इस पदावली को एक नई दिशा, नई व्याप्ति, नया आयाम देते हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2020, 1st |
Edition Year | 2024, Ed. 3rd |
Pages | 247p |
Price | ₹399.00 |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1.5 |