Jareela

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जरीला चांगदेव पाटील नामक युवक के बहाने उस अखिल भारतीय भूमि की जटिल वास्तविकता से रूबरू कराता है जो जाति, धर्म, परम्परा, संस्कार और इनके साथ ईर्ष्या, अहंकार, स्पर्द्धा आदि भावों के मिलने से बनती है। इसमें भारतीय जन-जीवन के उस पहलू  रेखांकित किया गया है जिसे किसी एक प्रान्त या स्थान तक सीमित नहीं किया जा सकता।

चांगदेव इस भूमि पर स्वयं को अकेला अनुभव करता है। वह अपने आसपास की संकीर्णताओं से ऊब उठता है लेकिन किसी से स्थायी घृणा उसे कभी नहीं होती। अपनी तरफ से वह अपेक्षा से ज्यादा देता है और जवाब में बहुत कम चाहता है। उसके लिए बड़े सवाल वे नहीं जो आसपास के सब लोगों के हैं। अपने होने की परम सार्थकता को अनुभव कर पाना ही उसकी एकमात्र इच्छा है।

वह एक पहाड़ी गाँव के कॉलेज में प्रोफेसर है जहाँ पर जाति की राजनीति सबसे प्रभावी शक्ति है। लेकिन वह उस सबसे ऊपर उठकर अपना काम करता रहता है और खुश है। विद्यालय के सहकर्मी अध्यापकों और गाँव के लोगों के साथ उसका अपनी तरह का एक सम्बन्ध बनता है। लेकिन तभी गाँव का ट्रांसफार्मर जल जाता है, और छह महीने के लिए लोग वापस अन्धकार युग में चले जाते हैं। बाहर का यह अँधेरा धीरे-धीरे उसके भीतरी अकेलेपन को इतना गहरा देता है कि वह घबरा उठता है। किसी से या कहीं से अन्तिम तौर पर जुड़ नहीं जाना है, उसका यह आन्तरिक आग्रह भी उसे गतिमान रखता है। अपने मामूलीपन को बचाते हुए वह जिन मूल्यों की रक्षा करता है, वे उसके सामने बहुत स्पष्ट नहीं हैं लेकिन वह उसी अस्पष्ट से मानवीय आग्रह के आधार पर अपने व्यक्तित्व को खड़ा करता है।

जरीला स्वतंत्र रूप से उतना ही दिलचस्प और पूर्ण पाठ है, जितना कि शृंखला की एक कड़ी के रूप में। यह एक बड़ी विशेषता है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2023
Edition Year 2023, Ed. 1st
Pages 304p
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1.5
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Bhalchandra Nemade

Author: Bhalchandra Nemade

भालचन्द्र नेमाड़े

महाराष्ट्र के सांगवी, ज़ि‍ला—जलगाँव में 27 मई, 1938 को जन्म।

पुणे तथा मुम्‍बई विश्वविद्यालयों से एम.ए. और औरंगाबाद विश्वविद्यालय से पीएच.डी.। औरंगाबाद, लंदन, गोआ तथा मुम्‍बई विश्वविद्यालयों में अध्यापन। मुम्‍बई विश्वविद्यालय के गुरुदेव टैगोर चेयर ऑफ़ कम्पॅरेटिव लिटरेचर में प्रोफ़ेसर तथा विभाग प्रमुख। सन् 1998 में अवकाश प्राप्त।

प्रमुख कृतियाँ : उपन्यास—‘कोसला’, ‘बिढ़ार’, ‘हूल’, ‘जरीला’  तथा ‘झूल’; काव्य—‘मेलडी’ तथा ‘देखणी’; आलोचना—‘साहित्याची भाषा’, ‘टीका स्वयंवर’, ‘साहित्य संस्कृति आणि जागतिकीकरण’, ‘Tukaram’ (साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित); ‘The influence of English on Marathi’; ‘Indo-Anglian Writings’; ‘Frantz Kafka : A Country Doctor’; ‘Nativism : Deshivad’। अनेक भाषाओं में रचनाओं के अनुवाद।

सम्मान एवं पुरस्कार : ‘बिढ़ार’  (उपन्यास)—महाराष्ट्र साहित्य परिषद का ‘ह.ना. आपटे पुरस्कार’; ‘झूल’  (उपन्यास)—‘यशवंतराव चव्हाण पुरस्कार’; ‘साहित्याची भाषा’ (आलोचना)—‘कुरुंदकर पुरस्कार’; ‘टीका स्वयंवर’ (आलोचना)—‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’; ‘देखणी’ (कविता-संग्रह)—‘कुसुमाग्रज पुरस्कार’; समग्र साहित्यिक उपलब्धियों के लिए महाराष्ट्र फ़ाउंडेशन का ‘गौरव पुरस्कार’; शिक्षा एवं साहित्यिक योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा ‘पद्मश्री सम्मान’; ‘कुसुमाग्रज जनस्थान पुरस्कार’; ‘एन.टी. रामाराव नेशनल लिटरेरी अवार्ड’; ‘बसवराज कट्टिमणि नेशनल अवार्ड’, ‘महात्मा फुले समता पुरस्कार’; समग्र कृतित्व के लिए 50वाँ ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’।

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