छत्तीसगढ़ का बस्तर अंचल देशवासियों को ही नहीं, अपितु विदेशियों को भी अपनी विशिष्ट एवं समृद्ध आदिवासी एवं लोक-संस्कृति के कारण आरम्भ से ही आकर्षित करता रहा है। यहाँ की आदिवासी एवं लोक-संस्कृति में साहित्य कला के अन्तर्गत वाचिक परम्परा के सहारे न जाने कब से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संचरित होती आ रही लोककथाएँ, गीति कथाएँ, गाथाएँ, महागाथा, लोकगीत, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, मिथ-कथाएँ आदि लोक-साहित्य एवं प्रदर्शनकारी कलाओं के अन्तर्गत नृत्य, संगीत, नाट्य तथा रूपंकर कलाओं के अन्तर्गत मूर्तिकला, लोक-चित्रकला एवं वास्तु-कला का भी प्रमुख स्थान रहा है।
कोंडागाँव, बस्तर (छत्तीसगढ़) के धातु-शिल्पी जयदेव बघेल का सम्बन्ध इन्हीं में से एक, मूर्तिकला से है। पारम्परिक मूर्तिकला से, जो 'घड़वा-कला' के नाम से विख्यात है और शासकीय तौर पर 'ढोकरा-कला' के नाम से जानी जाती है। इस विशुद्ध लोककला को बस्तर जैसे अंचल, जो सदा से पिछड़ा कहे जाने के लिए अभिशप्त रहा है, से उठाकर देश ही नहीं अपितु विदेशों में भी लोककला के साथ-साथ समकालीन कला के समतुल्य सम्मानजनक स्थान दिलाने में जयदेव बघेल का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह कहने में कोई संशय नहीं कि 'घड़वा-कला' और श्री जयदेव बघेल एक-दूसरे के पर्याय हैं।
इतना ही नहीं, श्री बघेल के ही प्रयासों से कोंडागाँव और इसके आसपास न केवल 'घड़वा-कला' अपितु अन्य आदिवासी एवं लोककलाओं का भी विस्तार एवं विकास हुआ। यही कारण है कि पहले से ही बस्तर सम्भाग की 'संस्कार-धानी' के नाम से अभिहित कोंडागाँव को अब 'शिल्प-नगरी' भी कहा जाता है। जयदेव बघेल का यह प्रामाणिक जीवन वृत्त पठनीय बन पड़ा है। उम्मीद है पाठकों को यह पुस्तक रुचिकर लगेगी।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2014 |
Edition Year | 2014, Ed. 1st |
Pages | 180p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22.5 X 14.5 X 1.5 |