कोई भी शिल्प या कला केवल शिल्प या कला नहीं होती, वह इतिहास को भी अपने भीतर समेटे होती है और वर्तमान को भी उसी तरह सामने रखती है, उसे प्रतिबिम्बित करती है। इतना ही नहीं, हम उसमें सम्बन्धित समाज का भविष्य भी देख-पढ़ सकते हैं। कहना ग़लत न होगा कि आदिवासी एवं लोक हस्तशिल्पों में उनका कल्पना-लोक बहुत ही प्रभावशाली ढंग से रूपायित होता और अहम् भूमिका निभाता दिखलाई पड़ता है।
बस्तर अंचल के हस्तशिल्प, चाहे वे आदिवासी हस्तशिल्प हों या लोक हस्तशिल्प, दुनिया-भर के कलाप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट करने में सक्षम रहे हैं! कारण, इनमें इस आदिवासी बहुल अंचल की आदिम संस्कृति की सोंधी महक बसी रही है। यह शिल्प-परम्परा और उसकी तकनीक बहुत पुरानी है। शिल्प का यह ज्ञान बहुत पुराना और पारम्परिक है, किन्तु इस ज्ञान का लिखित स्वरूप अब तक नहीं मिल पाया था।
यही कारण है कि बस्तर अंचल में जन्मे, पले, बढ़े और सतत जिज्ञासु साहित्यकार-लेखक और संस्कृतिकर्मी हरिहर वैष्णव को यह लगा कि न केवल बस्तर, अपितु देश के अन्य भागों में विभिन्न हस्तशिल्प विधाओं से जुड़े शिल्पियों के पास शिल्प और उसकी परम्परा से सम्बन्धित जो मौखिक ज्ञान है, वह किसी-न-किसी तरह अगली पीढ़ी तक हस्तान्तरित होना चाहिए। श्री वैष्णव के पास यहाँ के आदिवासी एवं लोक हस्तशिल्पियों से सम्बद्ध विभिन्न लोगों से बातचीत के दौरान पहले से एकत्र थोड़ी-बहुत सामग्री तो थी और कच्ची भी। अपनी इस नहीं के बराबर और कच्ची जानकारी को उन्होंने सम्बन्धित शिल्पियों से कई-कई बार मिलकर तथा सहभागी अवलोकन आदि के द्वारा और अधिक समृद्ध करने का प्रयास किया। विश्वास है कि बस्तर के आदिवासी एवं लोक हस्तशिल्प तथा इसकी परम्परा में रुचि रखनेवाले कलाप्रेमियों तथा अध्येताओं के लिए यह पुस्तक उपयोगी सिद्ध होगी।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2014 |
Edition Year | 2023, Ed. 3rd |
Pages | 336p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 2 |