गुजराती के सुविख्यात व्यंग्य लेखक विनोद भट्ट की यह कृति अपने पृष्ठों में सैकड़ों ऐसी बेजोड़ व्यंग्य कथाएँ सँजोए हुए हैं, जो मनोरंजक तो है ही, हमारी परम्परागत संस्कारशीलता का परिष्कार भी करती हैं। ये अनायास ही हमें वहाँ तक ले जाती हैं, जहाँ स्थितियाँ, इतिहास और चरित्र नए अर्थ देने लगते हैं। विनोद वस्तुतः पौराणिक और ऐतिहासिक मिथकों के सहारे समकालीन समाज की बहुविध विसंगतियों और मानव-स्वभाव की क्षुद्रताओं पर तीखे कटाक्ष करते हैं। कम-से-कम शब्दों में बड़ी-से-बड़ी बात कहना उनकी ख़ास पहचान बन चुकी है।
यह व्यंग्य-संग्रह कई उप शीर्षकों में बँटा हुआ है, जिनमें संगृहीत कथाएँ एक ख़ास अन्दाज़ में एक ख़ास विषय को उठाती हैं। इसके लिए परम्परागत भारतीय लोक-कथाओं, जातक-कथाओं, पच्चीसी, बत्तीसी तथा मेघदूत की शैली का उपयोग किया गया है। इससे कथाओं की पठनीयता और सहज ग्राह्यता में बढ़ोतरी हुई है, यहाँ तक कि ये आसानी से हमारी स्मृति का हिस्सा बन जाती हैं और इनकी प्रभावशीलता हमें दूसरों को सुनाने की उत्तेजना से
भर देती है।
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Paper Back |
Publication Year | 1987 |
Edition Year | 1996, Ed. 4th |
Pages | 179p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 17.5 X 10.5 X 1 |