लम्बे समय तक गैट ने विश्व व्यापार के संचालन और नियमन को लेकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, पर 1980 तथा 1990 के दशकों में विश्व में आए राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक परिवर्तनों ने इसे और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया। इस दौरान न केवल इसका दायरा व्यापकतर होता गया, बल्कि विश्व व्यापार संगठन की स्थापना भी हुई और यह तरह-तरह के विवादों से घिरा रहा। वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण और बाज़ारवाद के इस युग में हम विश्व व्यापार संगठन की अनदेखी का जोखिम नहीं उठा सकते। इस सन्दर्भ में हमारे लिए यह बहुत ज़रूरी है कि हम इसके विभिन्न समझौतों से भली-भाँति परिचित हों। दरअसल इन समझौतों को बारीकी से समझकर ही हम अपेक्षित लाभ उठा सकेंगे और साथ ही सम्भावित ख़तरों का मुक़ाबला भी कर सकेंगे। इसके मद्देनज़र जहाँ एक ओर इस पुस्तक में विश्व व्यापार संगठन के दुरूह और पेचीदे क़ानूनी समझौतों की सरल व्याख्या की गई है, वहीं दूसरी ओर इन समझौतों की भारत के परिप्रेक्ष्य में पड़ताल भी की गई है।
हाल में सम्पन्न हुए सिएटल सम्मेलन के दौरान एक बार फिर यह देखने को मिला कि विकसित देश अपने आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए विश्व व्यापार संगठन में ग़ैर-व्यापार विषयों को शामिल करना चाह रहे हैं। ज़ाहिर है, विकसित देशों के ऐसे प्रयास भारत जैसे विकासशील देशों के हितों के विरुद्ध जाते हैं। इस सम्बन्ध में हमें गैर-व्यापार विषयों और उनके पीछे की अर्थनीति को समझना बहुत ज़रूरी है। पुस्तक में इस पहलू पर भी विचार किया गया है। इसके अलावा कृषि, वस्त्र, सेवा आदि क्षेत्रों को लेकर भारत की क्षमता और ‘तुलनात्मक बढ़त’ की भी विस्तार से चर्चा की गई है।
कुल मिलाकर यह पुस्तक व्यापारियों, व्यवसायियों—डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, शिक्षक, लेखाकार, नर्स आदि—छात्रों, किसानों, उद्योग जगत से जुड़े लोगों तथा सेवा क्षेत्र से सम्बद्ध लोगों के लिए बहुत उपयोगी साबित होगी।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2000 |
Edition Year | 2000, Ed. 1st |
Pages | 148p |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1 |