Vilayat ke Ajoobe

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Vilayat ke Ajoobe

18वीं शताब्दी मुग़ल साम्राज्य के पतन के साथ-साथ यूरोपीय शक्तियों विशेष रूप से अंग्रेज़ों के उत्थान की शताब्दी है। पतन और उत्थान की यह सदी हिन्दुस्तान के सामंती ढाँचे के टूटने और उपनिवेश विस्तार की भी सदी मानी जाती है। उपनिवेशवादी षड्यंत्र और विस्तारवादी नीति से पहली बार इस महाद्वीप का सामना हो रहा था। हिन्दुस्तान के इतिहास में पहली बार सामाजिक ढाँचा छिन्न-भिन्न होने की प्रक्रिया आरम्भ हो गई थी। यह वही समय था जब मिर्ज़ा शेख़ एतेसामुद्दीन ने अपना सफ़रनामा ‘शिगुर्फ़नामा-ए-विलायत’ फारसी में लिखा था। यह यात्रा संस्मरण संभवतः किसी पहले हिन्दुस्तानी द्वारा लिखा गया यूरोप का पहला यात्रा संस्मरण है। इस सफ़रनामे का अध्ययन कई दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। 

सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मिर्ज़ा शेख़ एतेसामुद्दीन ने यूरोप की यात्रा 1766 यानी राजा राममोहन राय से लगभग 65 साल पहले की थी। जबकि अब तक यही माना जाता था कि राजा राममोहन राय पहले पढ़े-लिखे व्यक्ति थे जिन्होंने यूरोप की यात्रा की थी।

मिर्ज़ा प्रसिद्ध शायर मीर तकी मीर के समकक्ष हैं। 18वीं शताब्दी में जिस प्रकार मीर ने दिल्ली के उजड़ने का दर्द बयान किया है उसी प्रकार के अक्स इस सफ़रनामे में भी देखे जा सकते हैं। अपने धर्म और संस्कृति के प्रति दृढ़ विश्वास होने के बावजूद मिर्ज़ा साहब का अंग्रेज़ी संस्कृति से प्रभावित होने वाला प्रसंग हैरत पैदा करता है। इसके अतिरिक्त धर्म को लेकर वाद-विवाद प्रसंग भी बहुत रोचक और मज़ेदार है । दोनों संस्कृतियों में श्रेष्ठता का भाव भी देखने को मिलता है। इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते हुए आप 18 वीं शताब्दी की समुद्री यात्रा का हैरतअंगेज़ और अद्भुत अनुभव कर सकते हैं। इस सफ़र से गुज़रने का अनुभव बहुत आह्लादकारी और रोमांचक है।

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Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2022
Edition Year 2022, Ed. 1st
Pages 176p
Translator Haidar Ali
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 2
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Author: Mirza Sheikh Etesamuddin

मिर्ज़ा शेख़ एतेसामुद्दीन

मिर्ज़ा शेख़ एतेसामुद्दीन (1738-1800) सम्भवत: पहले पढ़े-लिखे भारतीय हैं जिन्होंने यूरोप की यात्रा की थी। मिर्ज़ा बंगाल के नदिया ज़िले के एक गाँव बाजनौर के रहने वाले थे। उनका सम्बन्ध एक पढ़े-लिखे परिवार से था। मिर्ज़ा एतेसामुद्दीन अरबी, बांग्ला, हिन्दुस्तानी और फ़ारसी भाषा के विशेषज्ञ थे। इसके अलावा उन्हें प्रशासन, कूटनीति और क़ानून के क्षेत्र में महारत हासिल थी। मिर्ज़ा ईस्ट इंडिया कम्पनी में मुंशी थे। उन्होंने शहंशाह शाह आलम द्वितीय के दरबार में भी काम किया। शहंशाह  ने उन्हें मिर्ज़ा की पदवी से नवाजा था। यह पदवी अंग्रेज़ों के 'नाइट' की तरह थी। यूरोप से आने के बाद मिर्ज़ा बहुत मशहूर हो गए और लोग उन्हें 'विलायत मुंशी' के नाम से जानने लगे थे। इस बीच वे बिहार, बंगाल और अवध के विभिन्न शहरों में रहे और इस कारण वे कुछ महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी भी थे। उन्होंने फ़ारसी में एक और पुस्तक नसबनामा शीर्षक से लिखी है।

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