विकल गौतम की इन कहानियों में ऊपर से देखने पर दो भिन्न समय-सन्दर्भ नज़र आते हैं। एक हमारा अपना जिसमें आस्था का कोई निश्चित केन्द्र नहीं बचा है और जिसमें मनुष्य को अपनी बेचैनियों से ख़ुद और सिर्फ़ ख़ुद जूझना है, ख़ुद ही अपने लिए रास्ते ईजाद करने हैं। दूसरा बुद्धकालीन समय है जहाँ करुणा की निर्मल चाँदनी चहुँओर बिखरी है लेकिन वहाँ भी अपने फ़ैसले के क्षणों में मनुष्य आज की ही तरह निपट अकेला है। इन दोनों समय-सन्दर्भों के बीच फ़ासला हज़ारों वर्षों का है लेकिन ये कहानियाँ पढ़ते हुए यह फ़ासला न जाने कहाँ विलुप्त हो जाता है। मनुष्य नाम का यह धागा जो इन दोनों समय-सन्दर्भों को जोड़ता है, यहाँ अपने अन्तर्तम में वैसे का वैसा ही है। उसकी बेचैनियाँ अपने स्वरूप में बहुत बदल गई हैं पर अपनी अन्तर्वस्तु में वे वही हैं, जो थीं और कौन जाने आगे भी वही रहें। इतने भिन्न समय-सन्दर्भों को कथा-शैली में कोई बड़ा बदलाव लाए बग़ैर साधने का यह जो विकल गौतम का कौशल है, वह हिन्दी कहानी में कुछ अलग-सी चीज़ है। सीधी, सरल और आमफ़हम अनुभूतियों को लेकर रची ये कहानियाँ पाठक को एक नए धरातल पर आत्म-साक्षात्कार के लिए तैयार करती हैं। उसकी बेचैनियों के अर्थ बदल जाते हैं और वे एक बहुत बड़े देशकाल में अनुनादित होने लगती हैं।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 1998 |
Edition Year | 1998, Ed. 1st |
Pages | 137p |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 18 X 12.5 X 1 |