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Sati Maiya Ka Chaura

Edition: 2013, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Lokbharti Prakashan
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Sati Maiya Ka Chaura

‘सती मैया का चौरा’ में भैरवप्रसाद गुप्त गाँवों की मुक्ति का सवाल उठाते हैं। वे साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए किए जानेवाले संघर्ष को भी विस्तारपूर्वक अंकित करते हैं। उपन्यास की कहानी दो सम्प्रदायों के किशोरों—मुन्नी और मन्ने को केन्द्र में रखकर विकसित होती है। मन्ने गाँव के ज़मींदार का लड़का है, जबकि मुन्नी एक साधारण हैसियत वाले वैश्य परिवार से है। उनके किशोर जीवन के चित्र साम्प्रदायिक कट्टरता के विरुद्ध एक आत्मीय और अन्तरंग हस्तक्षेप के रूप में अंकित हैं।

भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में ही उत्पन्न साम्प्रदायिक राजनीति की शक्तियाँ गाँव को भी प्रभावित करती हैं। सती मैया के चौरा के लिए शुरू हुआ संघर्ष उन निहित स्वार्थों को निर्ममतापूर्वक उद्घाटित करता है जो धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर लोक-चेतना और लोक-संस्कृति के प्रतीकों को नष्ट करते हैं। ‘हिन्दू-मुसलमान की बात कभी अपने दिमाग़ में उठने ही न दो, यह समस्या धार्मिक नहीं राजनीतिक है और सही राजनीति ही साम्प्रदायिकता का अन्त कर सकती है।’ यह सही राजनीति क्या है? ‘मैं कभी भी महत्त्वाकांक्षी नहीं रहा। धन, यश, प्रशंसा को कभी भी मैंने कोई महत्त्व नहीं दिया। पढ़ाई ख़त्म होने के बाद जो तकलीफ़ मैंने झेली, उसमें और आश्रम के जीवन में जो भी ग्रहण किया है, सच्चाई से किया है। आश्रम, जेल जीवन और पार्टी जीवन ने मुझे बिलकुल सफ़ेद कर दिया, सारी रंगीनियों को जला दिया...मैंने जीवन में जो भी ग्रहण किया है, सच्चाई से किया है। आश्रम में, जेल जीवन में, पार्टी जीवन में और अब पत्रकारिता और लेखक के जीवन में...।’

‘सती मैया का चौरा’ भैरवप्रसाद गुप्त का ही नहीं, समूचे हिन्दी उपन्यास में एक उल्लेखनीय रचना के रूप में समादृत रहा है।

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Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 2013
Edition Year 2013, Ed. 1st
Pages 487p
Publisher Lokbharti Prakashan
Dimensions 21.5 X 14 X 2.5
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Bhairavprasad Gupt

Author: Bhairavprasad Gupt

भैरवप्रसाद गुप्त

जन्म : 7 जुलाई, 1918 को गाँव— सिवानकला, बलिया, उ.प्र.।

शिक्षा : इविंग कॉलेज, इलाहाबाद से स्नातक।

अपने शिक्षक की प्रेरणा से कहानी-लेखन की ओर रुझान हुआ। जगदीशचन्द्र माथुर, शिवदानसिंह चौहान जैसे लेखकों एवं आलोचकों के सम्पर्क और साहित्यक-राजनीतिक परिवेश में उनके रचनात्मक संस्कारों को दिशा मिली।

सन् 1940 में मज़दूर नेताओं से सम्पर्क। सन् 1944 में माया प्रेस, इलाहाबाद से जुड़े। अपने अन्य समकालीनों की तरह आर्य समाज और गाँधीवादी राजनीति की राह से वामपंथी राजनीति की ओर आए। सन् 1948 में वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने।

प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें : उपन्यास—‘शोले’, ‘मशाल’, ‘गंगा मैया’, ‘ज़ंजीरें और नया आदमी’, ‘सत्ती मैया का चौरा’, ‘धरती’, ‘आशा’, ‘कालिन्दी’, ‘रम्भा’, ‘अन्तिम अध्याय’, ‘नौजवान’, ‘एक जीनियस की प्रेमकथा’, ‘भाग्य देवता’, ‘अक्षरों के आगे’ (मास्टर जी), 'छोटी-सी शुरुआत’; कहानी-संग्रह—‘मुहब्बत्त की राहें’, ‘फ़रिश्ता’, ‘बिगडे हुए दिमाग़’, ‘इंसान’, ‘बलिदान की कहानियाँ’, ‘मंज़‍िल’, ‘महफ़‍िल’, ‘सपने का अन्‍त’, ‘आँखों का सवाल’, ‘मंगली की टिकुली’, ‘आप क्या कर रहे हैं?’; नाटक और एकांकी—‘कसौटी’, ‘चंदबरदाई’, ‘राजा का बाण’। सम्पादित पत्रिकाएँ—‘माया’, ‘मनोहर कहानियाँ’, ‘कहानी’, ‘नई कहानियाँ’ आदि ।

निधन : 5 अप्रैल, 1995

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