ऐसे लेखक विरले ही होते हैं जिनकी रचनाएँ अपनी विधा को भी बदलती हों और उस विधा के इतिहास को भी। ज्ञानरंजन के बारे में यह बात निर्विवाद कही जा सकती है कि उनकी कहानियों के बाद हिन्दी कहानी वैसी नहीं रही जैसी कि उनसे पहले थी। उनके साथ हिन्दी गद्य का एक नया, आधुनिक, सघन और समर्थ व्यक्तित्व सामने आया जो उस दौर की भाषा में व्याप्त काव्यात्मक रूमान के बजाय काव्यात्मक सच्चाई से निर्मित हुआ था। ज्ञान की भाषा में उस पीढ़ी की भाषा थी जो भारतीय समाज में आज़ादी के महास्वप्नों के टूटने, परिवारों के बिखरने, मनुष्य के अकेला होते जाने और जीवन में अर्थहीनता के प्रवेश जैसे हादसों के बीच अपने विक्षोभ, अपनी हताशा और अपनी उम्मीद को पहचानने की बेचैन कोशिश कर रही थी। युवा होते समाज की इस आन्तरिक उथल-पुथल का इतना गहरा साक्षात्कार ज्ञानरंजन की कहानियों में मिलता है कि उनके अनेक चरित्र प्रेमचंद के कई चरित्रों की तरह हमारी स्मृति में अभिन्न रूप से शामिल हो गए। सन् साठ के बाद की हिन्दी कहानी एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान-बिन्दु या ‘कहानी का दूसरा इतिहास’ मानी गई और ज्ञानरंजन सामाजिक रूप से उसके सबसे बड़े रचनाकार कहे गए। लेकिन हर बड़े लेखक की तरह ज्ञानरंजन की कहानियाँ अपने दौर या समय को लाँघती गईं और इसीलिए आज भी पढ़ने पर उनकी प्राय: सभी कहानियाँ उतनी ही जीवन्त, प्रासंगिक और प्रामाणिक महसूस होती हैं। ‘क्षणजीवी’ जैसी कहानी लिखने और जीवन के निरर्थक क्षणों में अर्थ की खोज करनेवाले ज्ञानरंजन दरअसल हमारे समय के सबसे ‘दीर्घजीवी’ लेखकों में से हैं।
‘फेंस के इधर और उधर’, ‘पिता’, ‘शेष होते हुए’, ‘सम्बन्ध’, ‘यात्रा’, ‘घंटा’ और ‘बहिर्गमन’ आदि कहानियाँ जिस निम्न मध्यवर्गीय यथार्थ से मुठभेड़ के कारण प्रसिद्ध हुईं, वह भले ही बदल गया हो, लेकिन उस पर लिखी गई ये कहानियाँ कभी ‘पुरानी’ या ‘बासी’ नहीं हुईं। ज्ञानरंजन सरीखे कृती लेखक की ही यह सामर्थ्य है कि यथार्थ के पुराने पड़ जाने पर भी उसका अनुभव पुराना या समय-सापेक्ष नहीं हो जाता। बल्कि इन बहुचर्चित कहानियों में अभिव्यक्त विराट हलचल के बीच आनेवाले यथार्थ की अनेक आहटें भी हम सुन सकते हैं। संग्रह की अन्तिम और अद्भुत कहानी ‘अनुभव’ में तथाकथित उच्चवर्ग की विकृति और अश्लीलता के विवरणों में उस अपसंस्कृति का पूर्वाभास है जो आज हमारे समाज में चौतरफ़ा बजबजा रही है। वह एक स्वस्थ समाज की मृत्यु पर हिला देनेवाला शोकगीत है।
‘सपना नहीं’ ज्ञानरंजन की कालजयी कहानियों का संग्रह-भर नहीं है, यह हमारे समय का एक साहित्यिक दस्तावेज़ भी है और हमारे यथार्थ का साफ़ आईना भी है, जिसमें दिखते जीवन के बिम्ब पाठक को हमेशा उद्वेलित करते रहेंगे।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1997 |
Edition Year | 1997, Ed. 1st |
Pages | 222p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1.5 |