यह किताब एक सजग-संवेदनशील पत्रकार की डायरी है, जिसमें उसकी ‘आँखों देखी’ तो दर्ज है ही, हालात का तथ्यपरक विश्लेषण भी है। यह दिखलाती है कि एक आम बिहारी तरक़्क़ी की राह पर आगे बढ़ना चाहता है पर उसके पाँवों में भारी पत्थर बँधे हैं, जिससे उसको मुक्त करने में उस राजनीतिक नेतृत्व ने भी तत्परता नहीं दिखाई, जो इसी का वादा कर सत्तासीन हुआ था। आख्यानपरक शैली में लिखी गई यह किताब आम बिहारियों की जबान बोलती है, उनसे मिलकर उनकी कहानियों को सामने लाती है और उनके दुःख-दर्द को सरकारी आँकड़ों के सामने रखकर दिखाती है। इस तरह यह उस दरार पर रोशनी डालती है जिसके एक ओर सरकार के डबल डिजिट ग्रोथ के आँकड़े और चमचमाते दावे हैं तो दूसरी तरफ़ वंचित समाज के लोगों के अभाव, असहायता और पीड़ा की झकझोर देने वाली कहानियाँ हैं।
इस किताब के केन्द्र में बिहार है, उसके नीति-निर्माताओं की 73 वर्षों की कामयाबी और नाकामी का लेखा-जोखा है, लेकिन इसमें उठाए गए मुद्दे देश के हरेक राज्य की सचाई हैं। सरकार द्वारा आधुनिक विकास के ताबड़तोड़ दिखावे के बावजूद उसकी प्राथमिकताओं और आमजन की ज़रूरतों में अलगाव के निरंतर बने रहने को रेखांकित करते हुए यह किताब जिन सवालों को सामने रखती है, उनका सम्बन्ध वस्तुत: हमारे लोकतंत्र की बुनियाद है।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Publication Year | 2020 |
Edition Year | 2021, Ed. 2nd |
Pages | 240p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Sarthak (An imprint of Rajkamal Prakashan) |
Dimensions | 20 X 13 X 2 |