रचनाकर्म को अर्थवत्ता की खोज से जुड़ा मानने वाले अज्ञेय की कहानियाँ प्रचलित अर्थों में ‘यथार्थ’ से क़रीबी जताती भले ही मालूम न पड़ती हों लेकिन, उनके ही शब्दों में कहें तो, अर्थवत्ता की खोज की मानवीय जिजीविषा को वे सूक्ष्मता से उद्घाटित करती हैं। उनका यथार्थ-बोध बाहरी दृश्य-जगत के बजाय आन्तरिक सत्य पर अधिक आश्रित है, मानवीय जीवन-सन्दर्भ से परे कहानी के सन्दर्भ की स्वतंत्र सत्ता को वे स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टि व्यक्ति-वैशिष्ट्य केन्द्रित है, वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है। वस्तुतः जिस दौर में हिन्दी कहानी-लेखन में ‘यथार्थ’ से जुड़ाव और उसका चित्रण ही श्रेष्ठता की कसौटी समझा जा रहा था, उसी दौर में अज्ञेय ने अपनी कहानियों में यथार्थ को सामाजिकता की सतही सीमा तक सीमित न मानकर वैयक्तिक संवेदनाओं के आधार पर उसको रचने या परखने को प्राथमिकता दी। दुर्भाग्य से इसे सामाजिक चेतना के अभाव के रूप में देखा गया। यह उनकी रचनात्मकता का सही आकलन नहीं था। यह ऐसा अवरोध था जिसको हटाए बिना उनकी कहानियों के मर्म तक पहुँचना सम्भव नहीं हो सकता। आज के कथित उत्तर-आधुनिक बल्कि अधुनान्तिक समय में अज्ञेय की कहानियाँ मानवीय जीवन के ऐसे अनेक प्रासंगिक पहलुओं की तरफ ध्यान दिलाती हैं जिन्हें अतीत की रूढ़ बहसों से फैले धुन्ध में देखना कठिन था।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2024 |
Edition Year | 2024, Ed. 1st |
Pages | 120p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 18.5 X 12.5 X 1.5 |