Pragatisheel Sanskritik Aandolan

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Pragatisheel Sanskritik Aandolan
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पिछली सदी के चौथे दशक में प्रगतिशील आन्दोलन ने जिन मूल्यों और सरोकारों को लेकर साहित्य–कला–जगत में हस्तक्षेप किया, उनकी अद्यावधि निरन्तरता को देखने के लिए किसी दिव्यदृष्टि की ज़रूरत नहीं। साम्राज्यवाद, साम्प्रदायिकता, वर्गीय शोषण तथा हर तरह की ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ एक सुसंगत जनपक्षधर विवेक और नए सौन्दर्यबोध के साथ लिखी जानेवाली कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों और समालोचना की एक अटूट परम्परा सन् 36 के बाद देखने को मिलती है। साहित्य के साथ–साथ चित्रकला, शिल्प, रंगकर्म, संगीत और सिनेमा में भी प्रगतिशील कलाबोध की संगठित अभिव्यक्ति चौथे–पाँचवें दशक में सामने आने लगी थी। तब से कई उतार–चढ़ावों के बीच इस दृष्टि ने मुख़्तलिफ़ कलारूपों में, कहीं कम कहीं ज़्यादा, अपनी मानीख़ेज़ उपस्थिति बनाए रखी है।

आज हम औपनिवेशिक ग़ुलामी या संरक्षित पूँजीवादी विकास से नहीं, नवउदारवादी भूमंडलीकरण, निजीकरण और वित्तीय पूँजी के हमले से रूबरू हैं। बदले हुए वस्तुगत हालात बदली हुई साहित्यिक एवं कलात्मक अनुक्रियाओं–प्रतिक्रियाओं की माँग करते हैं। लिहाज़ा, इन आठ दशकों के दौरान अगर रचनात्मक अभिव्यक्ति की शक्ल और अन्तर्वस्तु में बदलाव न आते तो स्वयं निरन्तरता ही अवमूल्यित होती, इसलिए परिवर्तन, नए वस्तुगत हालात के बीच जनपक्षधर विवेक का नई तीक्ष्णता और त्वरा के साथ इस्तेमाल, यथार्थ की पहचान पर बल देनेवाले प्रगतिशील आन्दोलन की निरन्तरता का ही एक साक्ष्य बनकर सामने आता है।

प्रस्तुत पुस्तक प्रगतिशील आन्दोलन की इसी निरन्तरता पर भी केन्द्रित है। सांगठनिक धरातल पर आन्दोलन के विकास की रूपरेखा बताने तथा सम्भावनाएँ तलाशनेवाले लेखों के साथ–साथ कुछ महत्त्वपूर्ण समकालीन रचनाकारों व रंगकर्मियों के द्वारा अपने–अपने सांस्कृतिक कर्म में प्रगतिशील आन्दोलन का प्रभाव बतानेवाले आत्मकथ्य भी हैं। 

More Information
Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2016
Edition Year 2016, Ed. 1st
Pages 552p
Translator Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 3.5
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Murli Manohar Prasad Singh

Author: Murli Manohar Prasad Singh

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

जन्म: 29 जून, 1936; बरौनी गाँव (बिहार)।

शिक्षा: पटना विश्वविद्यालय से 1959 में हिन्दी एम.ए. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार पाठ्यक्रम में हिन्दी विभाग के एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद से सेवानिवृत्त। आजकल ‘जनवादी लेखक संघ’ के महासचिव और ‘नया पथ’ के सम्‍पादक।

प्रकाशित पुस्तकें : ‘आधुनिक साहित्य : विवाद और विवेचना’, ‘पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अन्‍तर्विरोध’ (सं.),

‘प्रेमचन्‍द : विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता’ (सं.), ‘श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन’ (सं.), ‘1857 : बग़ावत के दौर का इतिहास’ (सं.), ‘देवीशंकर अवस्थी निबन्‍ध संचयन’ (सं.), ‘हिन्दी-उर्दू : साझा संस्कृति’ (सं.), ‘पूँजीवाद और संचार माध्यम’ (सं.), ‘समाजवाद का सपना’ (सं.), ‘जाग उठे ख़्वाब कई’ नामक साहिर लुधियानवी की रचनाओं का संचयन-सम्पादन, ‘1857 : इतिहास और संस्कृति’, ‘हद से अनहद गए’   (प्रभाष जोशी स्मृति संचयन) (सं.) आदि।

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