1857 आधुनिक भारतीय इतिहास की ऐसी परिघटना है जिस पर सैकड़ों पुस्तकें लिखी गई हैं। इसके बावजूद इतिहास, कला और साहित्य के क्षेत्र में पिछले 150 वर्षों के अनुसंधानों पर आधारित नवोन्मेषकारी विवेचनाओं और उद्भावनाओं से हिन्दी-उर्दू भाषी समुदाय की चेतना में मंथन उत्पन्न करनेवाली पुस्तक का नितान्त अभाव है। इसी ज़रूरत को ध्यान में रखकर इस पुस्तक की सम्पूर्ण सामग्री में श्रमसाध्य और नए ढंग के संचयन का प्रयास किया गया है। इस पुस्तक में पूर्व प्रकाशित सामग्री अल्पतम है—सिर्फ़ सन्‍दर्भ बताने के उद्देश्य से। अंग्रेज़ी और हिन्दी-उर्दू में अभी तक अप्रकाशित अनेक महत्त्वपूर्ण आलेखों और सृजनधर्मी रचनाओं को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया गया है—इस व्यवस्था में एक वैचारिक अन्विति का होना स्वाभाविक है। चूँकि अन्विति ही वह विधि है जिसके माध्यम से अत्याधुनिक प्रक्रियाओं को समझने और इतिहास से संवाद कर रही कलात्मक और साहित्यिक सृजनशीलता के सन्दर्भ का खुलासा करने में मदद मिलती है। रंगकर्म, फ़िल्म, चित्रकला, उर्दू शायरी तथा हिन्दी साहित्य के परिदृश्यों के विवेचन से इसे समृद्ध किया गया है ताकि इतिहास, कला और साहित्य की परस्पर सम्बद्धता की अन्तःक्रिया भी स्पष्ट हो सके। 1857 पर इतिहास लेखन यद्यपि दो प्रतिध्रुवों में विभक्त रहा, इसके बावजूद सन् सत्तावन की जंगे-आज़ादी को समकालीन समाजवैज्ञानिक, चिन्तक और रचनाकार जिस दृष्टि से देखते हैं, उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का तात्पर्य जिस तर्कव्यवस्था से आलोकित करते हैं—इस पूरी पद्धति के लिहाज से इस संकलन में इरफ़ान हबीब, एजाज़ अहमद, सव्यसाची भट्टाचार्य, सूरजभान, रजत कांत रे, एस.पी. वर्मा, शीरीं मूसवी, पी.के. शुक्ला, देवेन्द्र राज अंकुर, इम्तियाज़ अहमद, अमर फ़ारूक़ी, नुज़हत काज़मी, मुहम्मद हसन, शिवकुमार मिश्र, कमलाकान्‍त त्रिपाठी, खगेन्द्र ठाकुर, विजेन्द्र नारायण सिंह, सीताराम येचुरी, नलिनी तनेजा, मनमोहन, असद ज़ैदी, संजीव कुमार आदि के आलेख ग़ौरतलब हैं। 1857 के साथ मैत्रेयी पुष्पा, कुमार अंबुज, योगेन्द्र आहूजा, दिनेश कुमार शुक्ल, सुल्तान अहमद, वंदना राग, विमल कुमार का रचनात्मक संवाद अतीत के साथ वर्तमान को भी आन्दोलित करता है। इतिहास, कला और साहित्य की घटनाओं और रचना प्रक्रियाओं का अन्तर्विरोध समझने के लिहाज़ से ही बीसवीं सदी के महान फ़्रांसीसी इतिहासकार मार्क ब्लाख की यह टिप्पणी स्मरणीय है कि ‘राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के क्षेत्र की परिघटनाएँ एक ही वक्र पर उपस्थित हों, यह आवश्यक नहीं है।’ इस पुस्तक के माध्यम से इसे 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध के भारतीय इतिहास और संस्कृति के सन्दर्भ में बख़ूबी समझा जा सकता है। अंग्रेज़ी में प्रकाशित होने से पहले ही अनेक आलेखों को हिन्दी में उपलब्ध कराने के सराहनीय प्रयास के साथ 1857 की जनक्रान्ति पर अभी तक हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों के बीच निस्सन्‍देह यह पुस्तक अनूठी और विचारोत्तेजक है। 

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2007
Edition Year 2007, Ed. 1st
Pages 287p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 24.5 X 16 X 2.5
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You're reviewing:1857 : Itihas Kala Sahitya
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Murli Manohar Prasad Singh

Author: Murli Manohar Prasad Singh

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह

जन्म: 29 जून, 1936; बरौनी गाँव (बिहार)।

शिक्षा: पटना विश्वविद्यालय से 1959 में हिन्दी एम.ए. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्राचार पाठ्यक्रम में हिन्दी विभाग के एसोशिएट प्रोफ़ेसर के पद से सेवानिवृत्त। आजकल ‘जनवादी लेखक संघ’ के महासचिव और ‘नया पथ’ के सम्‍पादक।

प्रकाशित पुस्तकें : ‘आधुनिक साहित्य : विवाद और विवेचना’, ‘पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अन्‍तर्विरोध’ (सं.),

‘प्रेमचन्‍द : विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता’ (सं.), ‘श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन’ (सं.), ‘1857 : बग़ावत के दौर का इतिहास’ (सं.), ‘देवीशंकर अवस्थी निबन्‍ध संचयन’ (सं.), ‘हिन्दी-उर्दू : साझा संस्कृति’ (सं.), ‘पूँजीवाद और संचार माध्यम’ (सं.), ‘समाजवाद का सपना’ (सं.), ‘जाग उठे ख़्वाब कई’ नामक साहिर लुधियानवी की रचनाओं का संचयन-सम्पादन, ‘1857 : इतिहास और संस्कृति’, ‘हद से अनहद गए’   (प्रभाष जोशी स्मृति संचयन) (सं.) आदि।

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