Padhi Padhi Ke Patthar Bhaya

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Padhi Padhi Ke Patthar Bhaya
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जाति-भेद आज भी हमारे समाज की एक गहरी खाई है जिसमें बतौर समाज और राष्ट्र हमारे देश की जाने कितनी सम्भावनाएँ गर्क होती रही हैं। आज़ादी के बाद संविधान की निगाह में हर नागरिक बराबर है, बावजूद इसके भेदभाव के जाने कितने रूप हमें शासित करते हैं। कई बार लगता है कि बिना ऊँच-नीच के, बिना किसी को छोटा या बड़ा देखे हुए हम अपने आप को चीन्ह ही नहीं पाते।

और भी दुखद यह है कि शिक्षा भी अपने तमाम नैतिक आग्रहों के बावजूद हमारे भीतर से इन ग्रन्थियों को नहीं निकाल पाती। इस पुस्तक को पढ़ते हुए आप अनेक ऐसे प्रसंगों से गुज़रेंगे जहाँ उच्च शिक्षा-संस्थानों में जाति-भेद की जड़ों की गहराई देखकर हैरान रह जाना पड़ता है। इस आत्मकथा के लेखक को अपनी प्रतिभा और क्षमता के रहते हुए भी स्कूल स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक बार-बार अपनी जाति के कारण या तो अपने प्राप्य से वंचित होना पड़ा या वंचित करने का प्रयास किया गया।

लेखक का मानना है कि व्यक्ति की प्रतिभा और उसका ज्ञान उसके मन और मस्तिष्क के व्यापक क्षितिज खोलने के साधन हैं लेकिन आज वे अधिकतर अनैतिक ही नहीं, संकीर्ण और निर्मम बनाने के जघन्य साधन बन गए हैं। वे कहते हैं कि भारतीय समाज की यही विसंगति उसकी सम्पूर्ण अर्जित ज्ञान-परम्परा को मानवीय व्यवहार में चरितार्थ न होने के कारण मानवता का उपहास बना देती है और आदर्श से उद्भासित उसकी सारी उक्तियाँ उसका मुँह चिढ़ाने लगती हैं।

यह आत्मकथा हमें एक बार फिर इन विसंगतियों को विस्तार से देखने और समझने का अवसर देती है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2018
Edition Year 2018, Ed. 1st
Pages 184p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
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Nandkishore Nandan

Author: Nandkishore Nandan

नंदकिशोर नन्दन

जन्म : 28 फरवरी, मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)। निम्न मध्यवर्गीय परिवार। 

शिक्षा : हिन्दी से एम.ए., पीएच.डी.। स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, बी.आर.ए. बिहार विश्वविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर के प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष पद से अवकाशोपरान्त लेखन एवं सामाजिक कार्यों में निरन्तर सक्रिय। 

प्रकाशित कृतियाँ : ‘अभी अन्त नहीं’ (उपन्यास); ‘नाटक घर’ (कहानी-संग्रह); ‘छूती हुई दूरियाँ’, ‘ये मेरे शब्द’ (कविता-संग्रह); ‘किस कल के लिए’, ‘जब गांधी चुनाव लड़े’, ‘मेरा वतन कहाँ है’ और ‘आग हुए हम’ (गीत-संग्रह); ‘गायक स्वच्छन्द हिमाचल का’, ‘रहबर और रहनुमा प्रेमचन्द’, ‘युग द्रष्टा : कवि गोपाल सिंह नेपाली’, ‘स्वप्न हूँ भविष्य का’, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात' : सांस्कृतिक चेतना के कवि’ (आलोचना); ‘संगीत मन को पंख लगाए’ (मन्ना डे पर केन्द्रित)।

शीघ्र प्रकाश्य : ‘दाग़ पुराना छूटत नाहीं’ (उपन्यास); ‘नंगे धड़ पर...’ (कहानी-संग्रह); ‘ख़ुशबू बनकर बिखर गया हूँ’ (ग़ज़ल-संग्रह); ‘हरसिंगार हैं खिले’ (प्रेम-गीतों का संग्रह); ‘उलझन मियाँ की वापसी’ (व्यंग्य-संग्रह); ‘समकालीन कविता का मुक्ति-संघर्ष’ (आलोचना); ‘हिन्दू होने की अन्तर्वेदना’ (सामयिक प्रसंगों पर आलेख) 

सम्पादन : ‘हस्तक्षेप’ एवं ‘युगावलोकन’ अनियतकालीन पत्रिकाओं का सम्पादन। नेपाली के शताब्दी वर्ष में उनके सभी सातों संग्रहों का सम्पादन—‘गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की श्रेष्ठ कविताएँ’ एवं ‘गोपाल सिंह ‘नेपाली’ की संकलित कविताएँ’। 

सम्मान : ‘नागार्जुन पुरस्कार’ (राजभाषा विभाग, बिहार सरकार), ‘शील सम्मान’, ‘हिन्दी साहित्य सेवी सम्मान’ (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना), ‘बी.पी. मंडल सम्मान’ (राजभाषा विभाग, बिहार सरकार) आदि।

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