Man Akela Ho Gaya Hai

Author: Vijay Joshi
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Man Akela Ho Gaya Hai

भावनाओं से भरा इनसान शायरी न करे तो क्या करे। विजय जोशी बड़े जज़्बाती इनसान हैं। हर बात उन्हें छू जाती है, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में, सुबह की हवा और सूरज की पहली किरन से लेकर, दिन डूबने और चाँद निकलने तक, हर लम्हे से भिड़ते हुए गुज़रते हैं। उन्हें सचमुच जीना आता है। इसीलिए जज़्बात पल-पल बुलबुलों की तरह उठते हैं और वह उन्हें टूट जाने से पहले पकड़ लेना चाहते हैं। कविता के कटोरे में आ जाएँ तो बच जाते हैं, वरना बह जाते हैं और फिर अगला दिन...

‘‘दोस्त

उस दिन तीस साल बाद

तुम्हारे सफ़ेद हो रहे बालों ने कही

समय के थपेड़ों की कई कहानियाँ

और मेरे चश्मे के नम्बर में छुपी थीं

गुज़रे पलों की निशानियाँ।’’

क्योंकि विजय बाक़ायदा शायरी नहीं करते, यानी मेरी तरह यह उनके लिए ज़रिया-ए-रोज़गार नहीं है। लेकिन ग़मे-रोज़गार के लिए बाक़ायदा लिखते रहते हैं अख़बारों में, रिसालों में और ख़तों में। मैं उनके शायराना ख़ुतूत हासिल कर चुका हूँ। उनकी नज़्में निजी लगती हैं लेकिन वह इतनी निजी हैं नहीं। एक जागी हुई चेतना और मुकम्मिल Social consciousness का एहसास देती हैं। वह अपना चौगिर्द लफ़्ज़ों से पेंट करते हैं, लेकिन लफ़्ज़़ों के वक़्फ़ों में इतना कुछ लिख देते हैं कि उसमें इतिहास नज़र आने लगता है। एक कोताहिये ‘ज़मीर’—

‘‘कल रात मेरा ज़मीर मर गया—

मर तो शायद काफ़ी पहले गया था...

मैंने इस एहसास को,

आत्मा तक उतरने नहीं दिया।             

आख़िर अपनों की मौत से कौन समझौता कर पाया है!’’

वह अपना माज़ी और वरसे में मिली धरती और उसकी सुन्दरता बयान करते हैं और उनमें छोटे-छोटे चित्र भी उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा रहे हैं। स्कूल के पीछे इमली का पेड़ खेतों की कोरों पर मिट्टी की मेंड़ सब गुम हो गया मेरे बच्चो, मैं तुमसे शर्मिन्दा हूँ—विरासत के नाम पर छोड़कर जाऊँगा उजड़ी-सी धरती, स्याह आसमान। विजय जितनी CASUALLY लिखते हैं, उतने ही ग़ौर से पढ़ने के क़ाबिल हैं, क्योंकि इस सादगी के पीछे एक निहायत ज़िम्मेदार की आत्मा जाग रही है।

More Information
Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2014
Edition Year 2014, Ed. 1st
Pages 100p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1
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Vijay Joshi

Author: Vijay Joshi

विजय जोशी

जन्‍म : 15 मार्च, 1948

पूर्व ग्रुप महाप्रबन्धक, बी.एच.ई.एल., विजय जोशी न केवल प्रबन्धन के क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम हैं, बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी उनके कविता-संग्रह ‘भला लगता है’ (भूमिका : श्री गुलज़ार) के तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। ‘मैनेजमेंट सीखें महात्‍मा से’, ‘मैनेजमेंट मंत्र’, ‘प्रबन्‍धन में 5 का मंत्र’, ‘प्रबन्‍धन की पाठशाला’, ‘प्रबन्‍धन के सुर : गांधी के गुर’, ‘सफल प्रबन्‍धन : गांधी दर्शन’, ‘प्रबन्‍धन के पाँच सूत्र’ आदि प्रबन्‍धन से जुड़ी उनकी उल्‍लेखनीय कृतियाँ हैं।

सम्‍मान : फ़ेलोशिप, इंस्‍टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स (इंडिया) एवं इंस्टीट्यूशन ऑफ़ प्‍लांट इंजीनियर्स।

सम्प्रति : कौंसिल मेम्बर, इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स (इंडिया)

ई-मेल : v.joshi415@rediffmail.com

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