Maan

Author: Maxim Gorki
Translator: Bhairavprasad Gupt
Edition: 2018, Ed. 6th
Language: Hindi
Publisher: Radhakrishna Prakashan
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Maan

लोहे के ढेर पर से उतरकर पावेल माँ के पास आ गया। भीड़ बौखला उठी थी। हर आदमी उत्तेजित होकर चिल्ला रहा था और बहस कर रहा था। “तुम कभी भी हड़ताल नहीं करा सकते,” राइबिन ने पावेल के पास आकर कहा, ‘‘ये कायर और लोभी लोग हैं। तीन सौ से ज़्यादा मज़दूर तुम्हारा साथ नहीं देंगे। अभी इनमें बहुत काम करने की ज़रूरत है।’’ पावेल ख़ामोश था। भारी भीड़ उसके सामने खड़ी थी और उससे जाने कैसी-कैसी माँग कर रही थी। वह आतंकित हो उठा। उसे लगा कि उसके शब्दों का कोई भी प्रभाव शेष नहीं रह गया था। वह घर की ओर लौटा तो बेहद थका और पराजित महसूस कर रहा था। माँ और सिम्मोव उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। राइबिन उसके साथ-साथ चलते हुए कह रहा था, “तुम बहुत अच्छा बोलते हो, लेकिन मर्म को नहीं छूते। यहाँ तर्कों से काम चलनेवाला नहीं, दिलों में आग लगाने की ज़रूरत है।” सिम्मोव माँ से कह रहा था, “हमारा अब मर जाना ही बेहतर है, पेलागिया! अब तो नई तरह के जवान आ गए हैं। हमारी और तुम्हारी कैसी ज़िन्दगी थी। मालिकों के सामने रेंगना और सिर पटकना। लेकिन आज देखा तुमने, डायरेक्टर से लड़कों ने किस तरह सिर उठाकर, बराबर की तरह, बात की!...अच्छा, पावेल, मैं फिर तुमसे मिलूँगा। अब इजाज़त दो।” वह चला गया तो राइबिन बोला, “लोग केवल शब्दों को नहीं सुनेंगे, पावेल, हमें यातना झेलनी होगी, अपने शब्दों को ख़ून में डुबोना होगा!” पावेल उस दिन देर तक अपने कमरे में परेशान टहलता रहा। थका, उदास, उसकी आँखें ऐसे जल रही थीं, जैसे वे किसी चीज़ की खोज में हों! माँ ने पूछा, “क्या बात है, बेटा? सिर में दर्द है। तो लेट जाओ। मैं डॉक्टर को बुलाती हूँ।” “नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है।...दरअसल मैं अभी बहुत छोटा और कमज़ोर हूँ। लोग मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, मेरे काम को अपना काम नहीं समझते।” “थोड़ा इन्तज़ार करो, बेटा,” माँ ने बेटे को सान्त्वना देते हुए कहा, “लोग जो आज नहीं समझते, कल समझ जाएँगे!” उपरोक्त संवाद से स्पष्ट है कि क्रान्ति की लौ को उजास देनेवाली एक माँ की महागाथा है—यह उपन्यास।

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Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 1971
Edition Year 2018, Ed. 6th
Pages 123p
Translator Bhairavprasad Gupt
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1
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Maxim Gorki

Author: Maxim Gorki

मैक्सिम गोर्की

मैक्सिम गोर्की का जन्म 28 मार्च, 1868 को वोल्गा के तट पर बसे नीजी नवगिरोव के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। बाद में उनकी मृत्यु के पश्चात् इसी नगर का नाम ‘गोर्की’ रखा गया। उनका पैतृक नाम ‘मैक्सिमोविच’ एवं कुलनाम ‘पेशकोव’ था।

घातक बीमारियाँ, क्रूर व्यक्ति, दुर्भाग्य और दुर्घटनाएँ उनके जीवन के अभिन्न अंग बन गए थे। गोर्की के जीवन के कटु अनुभवों को सुनकर लियो टॉल्स्टॉय ने उनसे कहा था : ‘तुम अजब आदमी हो। मुझे ग़लत न समझ बैठना लेकिन हो बड़े अजब आदमी। आश्चर्य है कि तुम अब भी इतने भले हो, जबकि तुम्हें बुरा बनने का पूरा अवसर था। सचमुच तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल है।’

गोर्की की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने अपने युग की विसंगतियों और विरोधी शक्तियों के स्वरूप को बहुत जल्दी ही समझ लिया। इस तरह उन्होंने रूसी साहित्य में उभरते हुए निराशावाद और दासवाद के स्वरों का ज़ोरदार विरोध किया और लेखकों-साहित्यकारों को उनके सामाजिक कर्तव्य की चेतना कराई। अपने कृतित्व द्वारा उन्होंने एक नया आदर्श प्रस्तुत किया और रूसी साहित्य को ही नहीं, विश्व साहित्य को भी एक नई दिशा दी।

निधन : 18 जून, 1936; मॉस्को, (सोवियत संघ)।

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